कुणाल भारती | (राजनीतिक एवं सामजिक विश्लेषक) |
नए नागरिकता कानून में यह प्रावधान किया गया है कि 31 दिसम्बर, 2014 को या उससे पहले भारत में आकर रहने वाले अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान के हिंदुओं, सिखों, बौद्धों, जैनियों, पारसियों और ईसाइयों को अवैध प्रवासी नहीं माना जाएगा। नागरिकता अधिनियम, 1955 अवैध प्रवासियों को भारतीय नागरिकता प्राप्त करने से प्रतिबंधित करता है। इस अधिनियम के तहत अवैध प्रवासी को ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित किया गया है: (1) जिसने वैध पासपोर्ट या यात्रा दस्तावेज़ों के बिना भारत में प्रवेश किया हो, या (2) जो अपने निर्धारित समय-सीमा से अधिक समय तक भारत में रहता है। विदित हो कि अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान से आने वाले धार्मिक अल्पसंख्यकों को उपर्युक्त लाभ प्रदान करने के लिये उन्हें विदेशी अधिनियम, 1946 और पासपोर्ट (भारत में प्रवेश) अधिनियम, 1920 के तहत भी छूट प्रदान करनी होगी, क्योंकि वर्ष 1920 का अधिनियम विदेशियों को अपने साथ पासपोर्ट रखने के लिये बाध्य करता है, जबकि 1946 का अधिनियम भारत में विदेशियों के प्रवेश और प्रस्थान को नियंत्रित करता है। 1955 का अधिनियम कुछ शर्तों (Qualification) को पूरा करने वाले व्यक्ति (अवैध प्रवासियों के अतिरिक्त) को नागरिकता प्राप्ति के लिये आवेदन करने की अनुमति प्रदान करता है। अधिनियम के अनुसार, इसके लिये अन्य बातों के अलावा उन्हें आवेदन की तिथि से 12 महीने पहले तक भारत में निवास और 12 महीने से पहले 14 वर्षों में से 11 वर्ष भारत में बिताने की शर्त पूरी करनी पड़ती है। उल्लेखनीय है कि नए कानून के मुताबिक अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान से आए हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी तथा ईसाई प्रवासियों के लिये 11 वर्ष की शर्त को घटाकर 5 वर्ष करने का प्रावधान करता है। नए कानून के अनुसार, नागरिकता प्राप्त करने पर ऐसे व्यक्तियों को भारत में उनके प्रवेश की तारीख से भारत का नागरिक माना जाएगा और अवैध प्रवास या नागरिकता के सम्बंध में उनके खिलाफ सभी कानूनी कार्यवाहियाँ बंद कर दी जाएंगी। अवैध प्रवासियों के लिये नागरिकता सम्बंधी उपर्युक्त प्रावधान संविधान की छठी अनुसूची में शामिल असम, मेघालय, मिज़ोरम और त्रिपुरा के आदिवासी क्षेत्रों पर लागू नहीं होंगे। इसके अलावा ये प्रावधान बंगाल ईस्टर्न फ्रंटियर रेगुलेशन, 1873 के तहत अधिसूचित 'इनर लाइन' क्षेत्रों पर भी लागू नहीं होंगे। ज्ञात हो कि इन क्षेत्रों में भारतीयों की यात्राओं को 'इनर लाइन परमिट' के माध्यम से विनियमित किया जाता है। वर्तमान में यह परमिट व्यवस्था अरुणाचल प्रदेश, मिज़ोरम और नगालैंड में लागू है। नागरिकता अधिनियम, 1955 के अनुसार, केंद्र सरकार किसी भी OCI कार्डधारक के पंजीकरण को निम्नलिखित आधार पर रद्द कर सकती है:
o यदि OCI पंजीकरण में कोई धोखाधड़ी सामने आती है।
o यदि पंजीकरण के पाँच साल के भीतर OCI कार्डधारक को दो साल या उससे अधिक समय के लिये कारावास की सज़ा सुनाई गई है।
o यदि ऐसा करना भारत की संप्रभुता और सुरक्षा के लिये आवश्यक हो।
नए कानून में OCI कार्डधारक के पंजीकरण को रद्द करने के लिये एक और आधार जोड़ने की बात की गई है, जिसके तहत यदि OCI कार्डधारक अधिनियम के प्रावधानों या केंद्र सरकार द्वारा अधिसूचित कोई अन्य कानून का उल्लंघन करता है तो भी केंद्र के पास उस OCI कार्डधारक के पंजीकरण को रद्द करने का अधिकार होगा।
अब बात यह भी करें कि इस कानून की आवश्यकता क्यों पड़ी, तो इसे समझना काफी सरल होगा वैसे देश के कुछ जाहिल व्यक्तियों को समझाना या फिर दिल्ली से कोलकाता पैदल जाना एक ही समान है। 1947 में भारत का विभाजन धार्मिक आधार पर हुआ जिसे बुद्धिजीवियों के भाषा में माउंटबेटन प्लान भी कहा जाता है। भारत के 2 बड़े राज्य यानी कि पंजाबऔर बंगाल का धर्म के आधार पर विभाजन किया गया। मुसलमान बहुमूल्य वाला क्षेत्र पाकिस्तान कहलाया। वही उस वक्त 1941 में सेंसस रिपोर्ट के आधार पर यह आंकड़ा आया वर्तमान के पाकिस्तान में उस वक्त कुल 20% जनसंख्या अल्पसंख्यकों की थी यानी कि गैर मुसलमान। 1947 में भारत और पाकिस्तान के विभाजन के बाद पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों की कुल जनसंख्या 14.2% था। ज्ञात हो तब पश्चिमी पाकिस्तान में गैर मुसलमानोंकी कुल जनसंख्या 3.44% थी वही पूर्वी पाकिस्तान यानी वर्तमान का बांग्लादेश में गैर मुसलमानों की कुल जनसंख्या 23.20% थी। 2011 के सेंसस रिपोर्ट में के मुताबिक जहाँ पाकिस्तान में एक वक्त 14.2% गैर मुस्लिम आबादी थी वह घटकर 3.85% हो गई. यह काफी चिंता का विषय था। बांग्लादेश में भी कमोवेश कुछ वैसा ही हालत है। एक वक्त जहाँ बांग्लादेश में गैर मुस्लिम आबादी 23.20% थी वह साल 1990 आते आते10.5% हो गई तथा 2011 सेंसस रिपोर्ट के मुताबिक यह आंकड़ा गिरकर 8.5% हो गया। वाजिब है कि इन दोनों देशों में गैर मुस्लिम आबादी को यह तो मार दिया गया, या फिर उनका जबरन धर्म परिवर्तन कर दिया गया, या फिर उन्हें इतना मजबूर कर दिया गया कि वह अपना देश छोड़ दें। ज्ञात हो पाकिस्तान एक इस्लामिक स्टेट है और वहाँ के मुसलमानों को किसी प्रकार का कोई खतरा नहीं है वही कहने के लिए तो बांग्लादेश अपने आप को सेक्यूलर कहता है लेकिन वहाँ मुसलमानों की जनसंख्या आज 90% से ऊपर है इसका मतलब वहाँ भी मुसलमानों को किसी प्रकार का कोई खतरा नहीं है। तो क्या वहाँ के गैर मुस्लिम आबादी को यूं ही मरते हुए छोड़ दिया जाता? क्या नियति का न्याय यही है? तथाकथित बुद्धिजीवियों से यह जानना चाहता हूँ कि क्या यही मानवता है कि गैर मुस्लिम आबादी को पड़ोसी देश में मरने दिया जाए उन्हें यातना झेलने दिया जाए?
सरकार का कहना है कि इन प्रवासियों ने अपने-अपने देशों में काफी 'भेदभाव और धार्मिक उत्पीड़न' का सामना किया है। नया कानून देश की पश्चिमी सीमाओं से गुजरात, राजस्थान, दिल्ली, मध्य प्रदेश और अन्य राज्यों में आए उत्पीड़ित लोगों को राहत प्रदान करेगा। इन छह अल्पसंख्यक समुदायों सहित भारतीय मूल के कई लोग नागरिकता अधिनियम, 1955 के तहत नागरिकता पाने में असफल तो रहते ही हैं और भारतीय मूल के समर्थन में साक्ष्य देने में भी असमर्थ रहते हैं। इसलिये उन्हें देशीयकरण द्वारा नागरिकता प्राप्त करने के लिये आवेदन करना पड़ता है, जो कि अपेक्षाकृत एक लंबी प्रक्रिया है।
नागरिकता संशोधन कानून को देश की मौजूदा परिस्थितियों के लिहाज से कितना प्रासंगिक हैं, क्या यह उचित समय पर लाया गया उचित कानून है? जो भी परिस्थितियाँ आज देश में बनी हैं वे इस कानून के पारित होने के बाद बनीं, इसलिये परिस्थितियों की बुनियाद पर कानून बनाने के समय के औचित्य पर सवाल उठाना जायज नहीं है। सही मायने में यह कानून बहुत देर से उठाया गया एक ऐसा कदम है जिसे आजादी के तुरंत बाद लागू किया जाना चाहिए था, आजादी के बाद 1950 में हुए नेहरू-लियाकत समझौते का पाकिस्तान द्वारा पालन नहीं किए जाने के बाद ही इस प्रकार का कानून लागू किया जाना चाहिए था। देश के तथाकथित बुद्धिजीवी तथा प्रदर्शनकारी लगातार कह रहे हैं कि कानून में धर्म के आधार पर भेदभाव करने के प्रावधानों को शामिल करने के कारण इसे संविधान के अनुच्छेद 14 और 25 के विरुद्ध बताए जाने की दलील दी जा रही है। शायद उन्हें यह मालूम ही नहीं है कि संविधान धर्म और जाति दोनों के आधार पर भेदभाव करना स्वीकार करता है, विभिन्न जातियों को दिया गया आरक्षण, जाति के आधार पर दी गयी विशेष सुविधा है, जबकि संविधान में लिखा है कि जाति के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होगा। यह भेदभाव इसलिये किया गया, क्योंकि ये जातियाँ प्रताड़ना की शिकार थीं, उन्हें एक समान पायदान पर लाने के लिये ही स्वयं संविधान ने यह भेदभाव करने की छूट दी। दरअसल हम यह मानते हैं कि यह भेदभाव नहीं है बल्कि इसे संविधान द्वारा धर्म और जाति सहित विभिन्न आधारों पर किया गया वर्गीकरण कहते है, इसीलिये आंध्र प्रदेश ने संविधान के तहत ही धर्म के आधार पर पांच प्रतिशत तक आरक्षण की व्यवस्था की थी। संविधान स्वयं कहता है कि असमान लोगों को समान नहीं माना जा सकता है। कानून में स्पष्ट प्रावधान है कि यह नागरिकता सिर्फ़ निर्दिष्ट तीन देशों के छह धर्मों के लोगों को ही मिलेगी जो धार्मिक प्रताड़ना के कारण भारत आकर पांच साल से रह रहे हैं। इन देशों में मुसलमानों के साथ भेदभाव की गुंजाइश जब है ही नहीं तो फिर भेदभाव का प्रश्न ही नहीं उठता है। हाँ अगर, नेपाल, म्यामां या किसी अन्य देश से आने वाले हिंदू या किसी अन्य धर्म के व्यक्ति को नागरिकता दी जाती है और मुसलमान को नहीं, तब यह बेशक भेदभाव के ही दायरे में आता है। वैसे भी भारत सदियों से पूरे विश्व में वसुधैव कुटुम्बकम् के लिए प्रख्यात है, अगर हम वहां के अल्पसंख्यकों को नागरिकता नहीं देंगे तो फिर क्या होगा उनका ?? और जो इसका विरोध कर रहे हैं, उन्हें पता होना चाहिए की संविधान की नागरिकता कानून 1955 के प्रक्रिया के तहत किसी भी धर्म के लोग भारतीय नागरिकता पाने के लिए निवेदन कर सकते हैं चाहे वह मुसलमान ही क्यों ना हो बस उन्हें 11 साल की अवधि इस देश में बितानी होगी | इसी कानून के तहत पाकिस्तान से आए मशहूर संगीतकार अदनान सामी को भी भारतीय नागरिकता दी गई | निसंदेह सारे तथ्य काफी सरल है बस विपक्ष के तरफ से उसे गलत परोसा जा रहा रहा है |
राजनीतिक रोटियाँ सेकने के लिए कॉन्ग्रेस, वामपंथी तथा कई क्षेत्रीय दल नए कानून का जोर शोर से विरोध कर रहे है। कुछ नेता तो ऐसे भी हैं जिन्होंने पूरा ज़िन्दगी अपना पैर अपराध जगत में फैलाया, जेल में सजा कांटा और अब नागरिकता संशोधन कानून का विरोध कर शहर में उपद्रव फैलया और सेक्युलरिज्म-सेक्युलरिज्म खेला। यह ऐसे लोग हैं जो अंदर से अपराधी मानसिकता के हैं पर अब समाज में अच्छाई का चोला पहनकर घूमना चाहते हैं, परंतु एक तथ्य यह भी है कि गुंडा हमेशा गुंडा ही रहता है। प्रदर्शनकारियों द्वारा रोजाना आगजनी की जा रही है, जनता के रखवाले पुलिस की पिटाई की जा रही है उन्हें रोड पर घसीटा जा रहा है, बसों और ट्रेनों को आग के हवाले कर दिया जा रहा है। गाड़ियों का शीशा तोड़ा जा रहा है। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ मीडिया कर्मियों पर जानलेवा हमला किया जा रहा है। मुझे समझ में नहीं आ रहा है किया विरोध प्रदर्शन किया जा रहा है या फिर एक गृह युद्ध की तैयारी की जा रही है, क्योंकि यह स्पष्ट होना ज़रूरी है। जामिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के छात्रों ने जिस तरह का उपद्रव दिखाया है वह काफी भयभीत करने वाला दृश्य है। शायद ऐसा दृश्य भारत ने पहले कभी नहीं देखा था और सही मायने में यह चिंता की घड़ी है। यह पूरा ड्रामा क्यों किया जा रहा है यह समझ से पढ़े है क्योंकि नया कानून यह स्पष्ट करता है कि यह कानून नागरिकता देने का है, नागरिकता लेने का नहीं है। भारत के पड़ोसी देश में गैर मुस्लिम आबादी खतरे में है, मुस्लिम आबादी खतरे में नहीं है तथा भारत के कोई मुसलमान नागरिक को नए कानून की वजह से परेशानी नहीं होने वाली है, वह सभी भारतीय हैं तथा भारतीय ही रहेंगे। फिर इतना विरोध प्रदर्शन क्यों? कहीं यह विरोध सिर्फ़ मोदी विरोधी स्वर तो नहीं है। इसका अर्थ तो साफ है कि कांग्रेसी, वामपंथी, ममता, यह सारे लोग मुस्लिम समुदाय की वोट बैंक की राजनीति करते हैं, इनका मूलवोट बैंक बांग्लादेश और पाकिस्तान से आए मुस्लिम शरणार्थियों की है जो कि भारत के संसाधनों पर एक भार है, इसमें किसी प्रकार का कोई संकोच नहीं है कि जो भी अवैध शरणार्थी होते हैं वह किसी देश के विकास में एक रोड़ा है। बाकी राजनीति का खेल तो काफी दिलचस्प होता है, अपने राजनीतिक फायदे के लिए यहाँ कुछ ऐसे दल भी हैं जिनकी नैतिक पतन हो गई है फिर भी लोगों को बरगलाना है और इसके लिए यह दल-दल कुछ भी कर सकते हैं। पड़ोसी देश में गैर मुस्लिम आबादी खतरे में है मुसलमान खतरे में नहीं है। यहाँ का मुसलमान क्यों विरोध कर रहा है और किसके कहने पर कर रहा है यह समझना होगा। हजारों की भीड़ जो रोड पर घूम रही है उसे सही मायने में नए कानून के बारे कुछ जानकारी भी नहीं रखती है, उन्हें तो भ्रमित किया गया है और यह तथ्य रोजाना न्यूज़ चैनल पर दिखाया जा रहा है कि उन्हें यह तक पता नहीं कि वह आंदोलन में क्यों आए हैं। मुसलमानों द्वारा किया गया यह उपद्रव पूरा देश देख रहा है। कौन कहता है कि मुसलमान भारत में अल्पसंख्यक है, क्या अल्पसंख्यक रोड पर ऐसा नंगा नाच करते हैं? क्या पुलिस को ऐसे मारा जाता है, क्या मीडिया कर्मियों की ऐसी पिटाई की जाती है? क्या ट्रेनों में ऐसे आग लगाया जाता है? क्या यह प्रक्रिया उचित है विरोध का? इन बातों को पर विचार करने का वक्त आ चुका है। क्या भारत में सही मायने में मुसलमान अल्पसंख्यक है? वैसे भी जो धर्म भारत के कई राज्यों और शहरों में बहुसंख्यक है वह अल्पसंख्यक की श्रेणी में कैसे आता है?
मुसलमानों द्वारा हिंसक आंदोलन में सबसे ज़्यादा टारगेट भारतीय रेल को बनाया गया है, भारतीय रेल ने जो आंकड़े जारी की है उसके मुताबिक कुल 88 करोड़ का नुकसान पहुंचाया गया है। यह नुकसान किसी और का नहींहमारे पैसों का हुआ है जो हम टैक्स के रूप में सरकार को देते हैं। खैर इन जाहिलओं को कौन समझाए, आखिरकार यह सभी जाहिल है तो बांग्लादेश और पाकिस्तान से आए रिफ्यूजी ही और इन्हें देश के फायदे नुकसान से क्या जाता है यह तो सिर्फ़ अपना फायदा जानते हैं। यह ऐसे लोग हैं जिनके लिए भारतीय संविधान नहीं सिर्फ़ शरीयत कानून सब कुछ है। भारत जिस प्रकार पड़ोसी देशों से मुसलमान अवैध प्रवासी का मार झेल रहा है, वह दिन दूर नहीं कि देश में भयंकर अराजकता की स्थिति आ जाएगी। शायद ऐसा ना हो कि यह लोग एक अलग राष्ट्र का मांग ना कर दें। बंगाल में तू ऐसी भयावह स्थिति हो गई है कि वह कुछ दिनों में पश्चिम बंगाल की जगह पश्चिम बांग्लादेश के नाम से जाना जाएगा। और इसका श्रेय सिर्फ़ वहाँ की तत्कालीन वामपंथी सरकार तथा वर्तमान की ममता सरकार को जाता है। वैसे सबसे रोचक बातेंतो यह है कि सारा विरोध प्रदर्शन कांग्रेस शासित राज्यों में क्यों नहीं हो रहा है? कहीं राजनीतिक पार्टियाँ इन हिंसक विरोध प्रदर्शनों का समर्थन धन और जन से कर रही है। जो भी हो पर एक बात तो स्पष्ट है कि वर्तमान के दृश्य को अपने टीवी सेट पर देखकर देश का हिंदू काफी सहमा हुआ है, डरा हुआ है, भयभीत हुआ है। उन्हें डर सता रहा है कि आने वाले 20-25 सालों में देश के हिंदुओं के साथ क्या होगा? शायद सब ऐसा ही रहा तो देश के हिंदुओं को अभी से यहाँ से कहीं और पलायन की तैयारी शुरू कर देनी चाहिए. राजनीतिक फायदे के लिए जो भी दल इन हिंसक विरोध प्रदर्शन का समर्थन कर रही है उससे बस एक बात ही समझ में आती है कि हिंदुस्तान आज भीकई जयचंद से घिरा हुआ है, सब कोई अपने स्वार्थ में है। देश जलता रहे, उसी आग में अपनी रोटी सभी को सेकनी है।
जामिया मिलिया इस्लामिया दक्षिण पूर्व दिल्ली के जामिया कैम्पस में रविवार की रात काफ़ी हंगामा रह, जामिया यूनिवर्सिटी की वाइस चांसलर नजमा अख्तर ने कहा कि पुलिस विश्वविद्यालय परिसर में बिना अनुमति या सहमति के घुसी थी। इससे पहले जामिया से लगे इलाके में प्रदर्शनकारियों ने बसों को आग लगा दी थी, इसके बाद पुलिस ने विश्वविद्यालय परिसर में घुसकर आँसू गैस के गोले दागे, ऐसे कई वीडियो वारयल हो रहे हैं जिसमें पुलिस छात्रों को लाठियों से पीटती हुई दिख रही है। अब मुझे एक बात समझ में नहीं आ रही है कि जितने भी लीब्रांड लोग पुलिस की इस कार्यवाही की आलोचना कर रहे हैं वह मुझे एक बात बताएँ कि क्या अपराधियों को पकड़ने के लिए पुलिस को किसी से पूछने की आवश्यकता है। जो छात्र ने भी पब्लिक प्रॉपर्टी को नुकसान पहुंचाया वह सभी लोग अपराधी थे, पुलिस ने कैम्पस से लगभग 50 लोगों को गिरफ़्तार कर लिया था। दिल्ली पुलिस मुख्यालय के बाहर देर रात एक बड़ा प्रदर्शन हुआ जिसके बाद गिरफ़्तार लोगों को रिहा कर दिया गया। जामिया परिसर में तनाव बना हुआ है लखनऊ में टकराव लखनऊ में दारूल उलूम नदवा-तुल-उलेमा के छात्रों और पुलिस के बीच टकराव के वीडियो सामने आए हैं। वीडियो में दो सौ से अधिक छात्रों और पुलिस के बीच पत्थरबाज़ी की घटना की खबर आ रही है।
कुछ मीडिया एजेंसी ने बंगाल में हो रहे हिंसा को आड़े हाथों लिया है। प्रसिद्ध अखबार जनसत्ता लिखता है "हिंसा से दहला बंगाल! पाँच ट्रेनें और तीन स्टेशन आग के हवाले, 25 बसें फूंकी गई." अख़बार आगे लिखता है, "पूर्वत्तर में भी नागरिकता क़ानून का विरोध जारी।" अख़बार ने अमित शाह के बयान को भी छापा है जिसमें वह कहते हैं, "कांग्रेस भड़का रही है हिंसा।" अमर उजाला में छपा है-"बंगाल में हिंसक प्रदर्शन, आगजनी।" नागरिकता क़ानून का विरोध: 78 ट्रेनें रद्द की गईं, 40 के रुट बदले गए, राष्ट्रीय राजमार्ग 34 और 6 पर जाम। वैसे भी वर्तमान की ममता सरकार अपने राजनीतिक फायदे के लिए लगातार बंगाली अस्मिता की धज्जियाँ उड़ा रही है।
संशोधित नागरिकता कानून के खिलाफ देश के कई राज्यों में हिंसक प्रदर्शन हो रहे हैं। इन प्रदर्शनों के दौरान सरकारी व निजी संपत्ति को लगातार निशाना बनाया जा रहा है। यूपी, पश्चिम बंगाल सहित देश के कई राज्यों से बसों व गाड़ियों में आग लगाने के घटनाएँ लगातार सामने आ रही हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने तो कहा है कि नुकसान की भरपाई दंगाईयों की संपत्ति बेचकर की जाएगी। सार्वजनिक संपत्ति नुकसान निवारण कानून 1984 के मुताबिक, अगर कोई व्यक्ति सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाता है तो उसे पांच साल तक की सजा या जुर्माने या फिर दोनों हो सकते हैं। सार्वजनिक संपत्ति के रूप में ऐसे भवन या संपत्ति को माना गया है जिसका उपयोग जल, प्रकाश, शक्ति या ऊर्जा उत्पादन या वितरण में किया जाता है। इसके साथ ही कोई तेल प्रतिष्ठान, सीवेरज, खान या कारखाना या फिर कोई लोक परिवहन या दूरसंचार साधन भी सार्वजनिक संपत्ति में आते हैं। वहीं अग्नि अथवा किसी विस्फोटक पदार्थ से सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने वाले को दस साल की सजा और जुर्माने से दंडित करने का प्रावधान है। 2007 में सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी और सार्वजनिक संपत्ति के बढ़ते नुकसान की घटनाओं को देखते हुए स्वतः संज्ञान लिया था। इस कानून को और प्रभावकारी बनाने के लिए दो उच्च स्तरीय समितियाँ बनाई. 2009 में इन दोनों समितियों की महत्त्वपूर्ण सलाह पर सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी और सार्वजनिक संपत्ति की सुरक्षा के लिए दिशा निर्देश जारी किए थे। सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देश में कहा सरकारी और सार्वजनिक संपत्ति का नुकसान होने पर सारी जिम्मेदारी आरोपी पर होगी।
Great and elaborated
ReplyDeleteGood elobratione
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