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किसान सम्बंधित संसोधन अधिनियम और राजनीति

सुजीत कुमार
(अर्थशास्त्री एवम बैंकर)
 
अफवाहों और धूर्त राजनीतिकारों से बचें। किसानों को उनके हाल पे छोड़ देने की राज
नीति से बुरा कुतर्क कुछ नहीं हैं । इसलिए उन्हें इस बदहाली से निकालने के लिए सरकार को प्रयत्न करना पड़ेगा। और इसी प्रयत्न की कड़ी में आज भारतीय संसद ने किसानों से संबंधित दो विधयेक पारित किए। मोदी सरकार की किसानों को यह सबसे बड़ी भेंट है।

अपने देश मे किसानों की बदहाली का किस्सा किसी से छुपा नहीं है। हालांकि खबर तभी बनती है जब वो जीवन से हार कर आत्महत्या कर ले। विडम्बना देखिये। उपज के दूगनी होने के बाद भी किसानों की आय आधी हो जाती है। क्यूंकी किसान अपनी उपज का समुचित भंडारण नहीं कर पाता, उसे कटाई के तुरंत बाद बिचोलियों के हाथ बेचने की मजबूरी है। 

तत्कालीन APMC कानून पाँव की बेड़ियाँ थी। कृषक उत्पाद को निकट मंडी में हीं बिकना है, भले ही वहां पहले से ही बोरियां भरी पड़ी हो। नतीजा, कौड़ियों के भाव बेचिए नहीं तो घर पे रख सड़ने दीजिए। सरकार घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) तो बड़े किसानों और आढ़तियों के लिए वरदान रहा। आखिर उनका उत्पाद तो प्राथमिकता से बिक जाएगा। राजनीतिक रसूख कब काम आए। अगर MSP मिल भी जाए तो कटता छोटे और मंझले किसान का तब भी। MSP तो समाधान का हिस्सा है। पर इससे जुड़ी व्यवस्था ने इसे भी समस्या बना डाला। 

90 फीसदी किसान आज 2 हेक्टेयर से कम जोत भूमि वाले हैं। विडम्बना यह कि अच्छे समय मे भी उनकी कृषि उत्पाद से आय एक न्यूनतम मजदूरी पाने वाले दिहाड़ी कमाने वाले श्रमिक से भी कम है। हालांकि मध्यम वर्ग उपभोक्ता का बजट तो कहीं से बेहतर नहीं होता। उसे कृषि उत्पाद तो आसमानी भाव पर ही मिलते हैं। मैं अपनी ही बात का उदाहरण देता हूँ।

जिस चावल को हमारे बाबूजी 22 रुपये किलो की दर से गांव में व्यापारी को बेचा, वहीं चावल मुम्बई में 70 रुपये किलो की दर से खरीद कर खा रहा। 250 फीसदी की मार्कअप कहीं और नहीं दिखेगा। लेकिन क्या मैं वो चावल अपने गांव से लाकर मुम्बई बेच सकता हूँ। जी नहीं, सरकार इसकी इजाजत नहीं देती थी। बेचना तो हमें अपने नजदीकी मंडी में ही होता। 


अगर चावल जैसे टिकाऊ उत्पाद में यह लाचारी, तो शाक सब्जी, दूध, आदि में तो इससे कहीं ज्यादा। आलम यह कि किसान सड़क पे कभी टमाटर गिरा आये या दूध बहा आए। मेरे बाबूजी 300 रुपये क्विंटल में अपने खेत मे उगाई आलू बेच पाए। क्या करते, घर पर रख के सड़ाने से वहीं बेहतर था। आज उन्हें 3000 रुपये क्विंटल खरीद कर खाना पड़ रहा है। 

देशव्यापी बाजार की उपलब्धता के साथ शीत भंडारण की समुचित व्यवस्था जरूरी है। आवश्यक वस्तु अधिनियम (ECA) में संसोधन का नया कानून यह मार्ग प्रशस्त करेगा। पर यहीं बात खत्म नहीं हो जाती। सभी उपाय करने के बावजूद कृषि आपके बच्चे के लिए बेहतर रोजगार विकल्प नहीं है। 

आज जब कृषि क्षेत्र की राष्ट्रीय सकल घरेलू आय में हिस्सा 15 फीसदी मात्र है, 45 फीसदी श्रम शक्ति आजीविका के लिए कृषि पर आधारित है। मतलब 55 फीसदी लोग जो कृषि से विरत हैं, 85 फीसदी आय के स्वामी हैं। पिछले तीस वर्षों में कृषि से जुड़ा व्यक्ति की आय उद्योग या सेवा क्षेत्र में कार्य करने वाले कि तुलना में एक चौथाई रही है। एक पीढ़ी में यह प्रति वर्ष आय का अंतर एक कृषक परिवार को बाकी व्यवसाई से बहुत पीछे छोड़ देगा। पर किसान करे तो क्या। खेत-जमीन छोड़ नहीं सकता। पुरखों की बनाई पूंजी है। यही तो उसका सबकुछ है।

कृषक अपने मेहनत की जिम्मेदारी ले सकता है पर उत्पाद की जिम्मेदारी बाढ़-सुखाड़ के जोखिम से रहित होनी चाहिए। क्या यह सम्भव है? जी हां, कृषि उत्पादों के लिए भी इन्सुरेंस की व्यवस्था है। पर उसके समुचित जानकारी का अभाव है और व्यवस्था भी उसके कार्यन्वयन में उदासीन रही है। नतीजा, ढाक के तीन पात।

सरकार ने संविदा पर खेती का भी कानून लाया है। इसमें किसान बड़े व्यापारी, निर्यातक, कम्पनियों से अनुबंध कर वहीं फसल लगाए जिसकी खरीद पूर्व निर्धारित दर पर सुनिश्चित हो। इन्सुरेंस इस व्यवस्था का सहज ही हिस्सा होगा। व्यापारी अपना नुकसान नहीं चाहेगा। 

पर यह नई व्यवस्था किसानों के हित मे काम करे इसके लिए किसानों को संगठित शक्ति के साथ काम करना होगा। हर छोटा किसान बड़ी कम्पनी तक नहीं पहुंच सकता। न हीं बड़ी कम्पनी छोटे किसान तक। बड़ी कम्पनी की खरीदी की आवश्यकता भी बड़ी होगी जो चन्द छोटे किसानों से पूरी नहीं होगी। अगर उचित लाभ चाहिए तो परिमाण भी बड़ा रखना होगा। 

पूरा एक गांव , 100-200 किसान एक साथ आ सकें ऐसी व्यवस्था करनी होगी! गांव गांव में कृषक उत्पाद संगठन (FPO) बनाने होंगे। यह कुछ सहकारी जैसा ही है बस इसकी मुख्य भूमिका किसानों को बाजार से उचित मूल्य दिलाने की होगी। संविदा खेती किसानों की हितकारी बने, इसके लिए कृषक सहकारी संगठन की महती भूमिका होगी। हो सके तो कृषि से इतर रोजगार देखें। 

नए कानून की मांग वर्षों से लंबित रही है। किसानों के गरीबी पर राजनीतिक रोटी सेंकने वालों को यह पसंद नहीं कि उनका वोट बैंक उनके हाथ से निकल जाए। 

बिहार में चुनाव है। नेताजी सब उड़नदस्ते के साथ गांव-गांव सभायें किये जा रहे हैं। कोरोना वायरस, जिसने विश्व की ऐसी तैसी कर रखी है, भारत मे 54 लाख लोग प्रभावित और मरने वालों का आंकड़ा 1 लाख चूमता हुआ। हर दिन 1 लाख नए मरीज। पर मजाल है कि बिहार में चुनावी बाजार में कोई मंदी ला दे। 

आज नेता जी विशेष से किसान बस एक ही मांग रखे। वोट मिलेगा अगर मेरे गांव में शीत-भंडारण (Cold-Store)बने। हर पंचायत स्तर पर FPO का संगठन हो। यहीं आपको मदद करेगा। बाकी सब बातें लफ्फाजी है। 

कोरोना से 2 गज की दूरी आपके स्वास्थ्य के लिए जरूरी है। और राजनीतिक धूर्तो से 2 किलोमीटर की दूरी आपके भविष्य के लिये। 

शुभकामनाएं। सुरक्षित रहें।

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