कुणाल भारती राजनीतिक एवं सामाजिक विश्लेषक |
इन दिनों भारत में एक देश-एक चुनाव को लेकर देश में चर्चा चल रही है| कुछ राजनीतिक दल इसके पक्ष में हैं तो कई इसके खिलाफ और कुछ अन्य दलों ने अभी इस पर अपनी राय ज़ाहिर नहीं की है| कहा जाता है कि भारत में चुनाव, मेलों की तरह होते हैं| जैसे देश के अलग अलग हिस्सों में हर समय कोई कोई न मेला लगा रहता है, ठीक वैसे ही देश के सभी हिस्सों में किसी न किसी रूप में चुनाव भी संपन्न होते रहते हैं| मतदाताओं द्वारा अपने प्रतिनिधियों का चुनाव लोकतंत्र की बड़ी खासियतों में से एक है, लेकिन एक सच ये भी है कि चुनावी प्रक्रिया के लगातार चलते रहने से विकास की रफ्तार पर लगाम भी लगती है| किसी भी जीवंत लोकतंत्र में चुनाव एक अनिवार्य प्रक्रिया है। स्वस्थ एवं निष्पक्ष चुनाव लोकतंत्र की आधारशिला होते हैं| भारत जैसे विशाल देश में निर्बाध रूप से निष्पक्ष चुनाव कराना हमेशा से एक चुनौती रहा है| अगर हम देश में होने वाले चुनावों पर नजर डालें तो पाते हैं कि हर वर्ष किसी न किसी राज्य में चुनाव होते रहते हैं| चुनावों की इस निरंतरता के कारण देश हमेशा चुनावी मोड में रहता है| इससे न केवल प्रशासनिक और नीतिगत निर्णय प्रभावित होते हैं बल्कि देश के खजाने पर भारी बोझ भी पड़ता है| इस सबसे बचने के लिये नीति निर्माताओं ने लोकसभा तथा राज्यों की विधानसभाओं का चुनाव एक साथ कराने का विचार बनाया | गौरतलब है कि देश में इनके अलावा पंचायत और नगरपालिकाओं के चुनाव भी होते हैं किन्तु एक देश एक चुनाव में इन्हें शामिल नहीं किया जाना चाहिए। चुनाव आयोग के अनुमानों के मुताबिक लोकसभा, विधानसभा चुनावों पर करीब 4,500 करोड़ रुपए खर्च किये जाते हैं, राष्ट्रीय खजाने से साल 2014 के लोकसभा चुनाव में 3426 करोड़ रुपये खर्च किए गए, वहीं राजनीतिक दलों द्वारा 2014 के लोकसभा चुनाव में लगभग 26,000 करोड़ रुपये खर्च किए गए थे| साल 2009 के लोकसभा चुनाव में सरकारी खजाने से 1483 करोड़ रुपये का खर्च हुआ था| 1952 के चुनाव में प्रति मतदाता खर्च 60 पैसे था, जो साल 2009 में बढ़कर 12 रुपये पहुंच गया |
विधि आयोग ने वर्ष 1999 में दी गई अपनी 170वीं रिपोर्ट में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनावों को एक साथ कराने का समर्थन किया था| चुनाव सुधारों पर विधि आयोग की इस रिपोर्ट को देश में राजनीतिक प्रणाली के कामकाज पर अब तक के सबसे व्यापक दस्तावेज़ों में से एक माना जाता है, इस रिपोर्ट का एक पूरा अध्याय इसी पर केंद्रित है| राजनीतिक व चुनावी सुधारों से संबंधित इस रिपोर्ट में दलीय सुधारों पर भी काफी बल दिया गया है| राजनीतिक दलों के कोष, चंदा एकत्रित करने के तरीके और उसमें अनियमितताएँ तथा इन सबका राजनीतिक प्रक्रियाओं पर प्रभाव आदि का भी इस रिपोर्ट में विश्लेषण किया गया है| आज ईवीएम में नोटा (NOTA) का जो विकल्प है, इसकी सिफारिश भी विधि आयोग ने अपनी 170वीं रिपोर्ट में ‘नकारात्मक मतदान की व्यवस्था लागू करने’ की बात कहकर की थी, इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर यह विकल्प मतदाताओं को दिया गया| एक तरफ जहाँ कुछ जानकारों का मानना है कि अब देश की जनसंख्या बहुत ज्यादा बढ़ गई है, लिहाजा एक साथ चुनाव करा पाना संभव नहीं है, तो वहीं दूसरी तरफ कुछ विश्लेषक कहते हैं कि अगर देश की जनसंख्या बढ़ी है तो तकनीक और अन्य संसाधनों का भी विकास हुआ है| इसलिए एक देश एक चुनाव की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता| किन्तु इन सब से इसकी सार्थकता सिद्ध नहीं होती, इसके लिए इसके पक्ष और विपक्ष में दिये गए तर्कों का विश्लेषण करना होगा|
अगर हम पहले एक देश एक चुनाव के समर्थन में दिये जाने वाले तर्क को देखें तो अनेकों फायदे हैं| एक देश एक चुनाव के पक्ष में कहा जाता है कि यह विकासोन्मुखी विचार है| जाहिर है लगातार चुनावों के कारण देश में बार-बार आदर्श आचार संहिता लागू करनी पड़ती है| इसकी वजह से सरकार आवश्यक नीतिगत निर्णय नहीं ले पाती और विभिन्न योजनाओं को लागू करने समस्या आती है। इसके कारण विकास कार्य प्रभावित होते हैं। आपको बता दें कि आदर्श आचार संहिता या मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट चुनावों की निष्पक्षता बरकरार रखने के लिये बनाया गया है| इसके तहत निर्वाचन आयोग द्वारा चुनाव अधिसूचना जारी करने के बाद सत्ताधारी दल के द्वारा किसी परियोजना की घोषणा, नई स्कीमों की शुरुआत या वित्तीय मंजूरी और नियुक्ति प्रक्रिया की मनाही रहती है| इसके पीछे निहित उद्देश्य यह है कि सत्ताधारी दल को चुनाव में अतिरिक्त लाभ न मिल सके| इसलिए यदि देश में एक ही बार में लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं का चुनाव कराया जाए तो आदर्श आचार संहिता कुछ ही समय तक लागू रहेगी, और इसके बाद विकास कार्यों को निर्बाध पूरा किया जा सकेगा|
एक देश एक चुनाव के पक्ष में दूसरा तर्क यह है कि इससे बार-बार चुनावों में होने वाले भारी खर्च में कमी आएगी| गौरतलब है कि बार-बार चुनाव होते रहने से सरकारी खजाने पर अतिरिक्त आर्थिक बोझ पड़ता है| चुनाव पर होने वाले खर्च में लगातार हो रही वृद्धि इस बात का सबूत है कि यह देश की आर्थिक सेहत के लिये ठीक नहीं है|
एक देश एक चुनाव के पक्ष में दिये जाने वाले तीसरे तर्क में कहा जाता है कि इससे काले धन और भ्रष्टाचार पर रोक लगाने में मदद मिलेगी| यह किसी से छिपा नहीं है कि चुनावों के दौरान राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों द्वारा काले धन का खुलकर इस्तेमाल किया जाता है| हालाँकि देश में प्रत्याशियों द्वारा चुनावों में किये जाने वाले खर्च की सीमा निर्धारित की गई है, किन्तु राजनीतिक दलों द्वारा किये जाने वाले खर्च की कोई सीमा निर्धारित नहीं की गई है| कुछ विश्लेषक यह मानते हैं कि लगातार चुनाव होते रहने से राजनेताओं और पार्टियों को सामजिक समरसता भंग करने का मौका मिल जाता है जाता है, जिसकी वजह से अनावश्यक तनाव की परिस्थितियां बन जाती हैं| एक साथ चुनाव कराये जाने से इस प्रकार की समस्याओं से निजात पाई जा सकती है|
इसके पक्ष में चौथा तर्क यह है कि एक साथ चुनाव कराने से सरकारी कर्मचारियों और सुरक्षा बलों को बार-बार चुनावी ड्यूटी पर लगाने की जरूरत नहीं पड़ेगी |इससे उनका समय तो बचेगा ही और वे अपने कर्त्तव्यों का पालन भी सही तरीके से कर पायेंगे| आपको बता दें कि हमारे यहाँ चुनाव कराने के लिये शिक्षकों और सरकारी नौकरी करने वाले कर्मचारियों की सेवाएं ली जाती हैं, जिससे उनका कार्य प्रभावित होता है। इतना ही नहीं, निर्बाध चुनाव कराने के लिये भारी संख्या में पुलिस और सुरक्षा बलों की तैनाति से आम जन-जीवन भी प्रभावित होता है|
अगर हम इसके दूसरे पहलू यानी कि एक देश एक चुनाव के विरोध में दिये जाने वाले तर्क को देखें तो सभी बातें काफी स्पष्ट होती दिखाई देगी| एक देश एक चुनाव के विरोध में विश्लेषकों का मानना है कि संविधान ने हमें संसदीय मॉडल प्रदान किया है जिसके तहत लोकसभा और विधानसभाएँ पाँच वर्षों के लिये चुनी जाती हैं, लेकिन एक साथ चुनाव कराने के मुद्दे पर हमारा संविधान मौन है| संविधान में कई ऐसे प्रावधान हैं जो इस विचार के बिल्कुल विपरीत दिखाई देते हैं| मसलन अनुच्छेद 2 के तहत संसद द्वारा किसी नये राज्य को भारतीय संघ में शामिल किया जा सकता है और अनुच्छेद 3 के तहत संसद कोई नया राज्य बना सकती है, जहाँ अलग से चुनाव कराने पड़ सकते हैं|
इसी प्रकार अनुच्छेद 85(2)(ख) के अनुसार राष्ट्रपति लोकसभा को और अनुच्छेद 174(2)(ख) के अनुसार राज्यपाल विधानसभा को पाँच वर्ष से पहले भी भंग कर सकते हैं |अनुच्छेद 352 के तहत युद्ध, बाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह की स्थिति में राष्ट्रीय आपातकाल लगाकर लोकसभा का कार्यकाल बढ़ाया जा सकता है| इसी तरह अनुच्छेद 356 के तहत राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है और ऐसी स्थिति में संबंधित राज्य के राजनीतिक समीकरण में अप्रत्याशित उलटफेर होने से वहाँ फिर से चुनाव की संभावना बढ़ जाती है, ये सारी परिस्थितियाँ एक देश एक चुनाव के नितांत विपरीत हैं|
एक देश एक चुनाव के विरोध में दूसरा तर्क यह दिया जाता है कि यह विचार देश के संघीय ढाँचे के विपरीत होगा और संसदीय लोकतंत्र के लिये घातक कदम होगा| लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं का चुनाव एक साथ करवाने पर कुछ विधानसभाओं के मर्जी के खिलाफ उनके कार्यकाल को बढ़ाया या घटाया जायेगा जिससे राज्यों की स्वायत्तता प्रभावित हो सकती है| भारत का संघीय ढाँचा संसदीय शासन प्रणाली से प्रेरित है और संसदीय शासन प्रणाली में चुनावों की बारंबारता एक अकाट्य सच्चाई है|
एक देश एक चुनाव के विरोध में तीसरा तर्क यह है कि अगर लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ करवाए गए तो ज्यादा संभावना है कि राष्ट्रीय मुद्दों के सामने क्षेत्रीय मुद्दे गौण हो जाएँ या इसके विपरीत क्षेत्रीय मुद्दों के सामने राष्ट्रीय मुद्दे अपना अस्तित्व खो दें| दरअसल लोकसभा एवं विधानसभाओं के चुनाव का स्वरूप और मुद्दे बिल्कुल अलग होते हैं| लोकसभा के चुनाव जहाँ राष्ट्रीय सरकार के गठन के लिये होते हैं, वहीं विधानसभा के चुनाव राज्य सरकार का गठन करने के लिये होते हैं| इसलिए लोकसभा में जहाँ राष्ट्रीय महत्त्व के मुद्दों को प्रमुखता दी जाती है, तो वहीं विधानसभा चुनावों में क्षेत्रीय महत्त्व के मुद्दे आगे रहते हैं|
इसके विरोध में चौथा तर्क यह है कि लोकतंत्र को जनता का शासन कहा जाता है| देश में संसदीय प्रणाली होने के नाते अलग-अलग समय पर चुनाव होते रहते हैं और जनप्रतिनिधियों को जनता के प्रति लगातार जवाबदेह बने रहना पड़ता है| इसके अलावा कोई भी पार्टी या नेता एक चुनाव जीतने के बाद निरंकुश होकर काम नहीं कर सकता क्योंकि उसे छोटे-छोटे अंतरालों पर किसी न किसी चुनाव का सामना करना पड़ता है | विश्लेषकों का मानना है कि अगर दोनों चुनाव एक साथ कराये जाते हैं, तो ऐसा होने की आशंका बढ़ जाएगी|
एक देश एक चुनाव के विरोध में पाँचवा तर्क यह दिया जाता है कि भारत जनसंख्या के मामले में विश्व का दूसरा सबसे बड़ा देश है| लिहाजा बड़ी आबादी और आधारभूत संरचना के अभाव में लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं का चुनाव एक साथ कराना तार्किक प्रतीत नहीं होता|
भारत की संरचना संघीय है| पहले तीन चुनाव एक साथ कराए गए थे लेकिन इस पर भी विचार किया जाना चाहिये कि बाद में चुनाव एक साथ होने बंद क्यों हुए थे| वर्तमान समय में भी इसप्रकार के हालात उत्पन्न हो सकते हैं| यदि एक साथ सारे चुनाव करा दिये जाएँ तो इस बात की क्या गारंटी है कि सरकारें नहीं गिरेंगी| उदाहरण के लिये वाजपेयी जी की सरकार 13 दिन में ही गिर गई थी| ऐसी सूरत में 28 राज्यों में बहुमत के साथ आईं सरकारों का क्या होगा| कुछ सांसदों द्वारा सरकार से अपना समर्थन वापस लेने की स्थिति में यदि लोकसभा में सरकार गिर गई तो सारे देश में उथल-पुथल की स्थिति उत्पन्न होगी जो देश हित में नहीं होगा| पर अगर देखा जाए तो 2010 के बाद ज्यादातर राज्यों में पूर्ण बहुमत की सरकारें काम कर रही हैं। इसका अर्थ ये है कि भारतीय मतदाता परिपक्व हो चुका है| सच तो ये है कि मौजूदा समय में देश के किसी न किसी हिस्से में चुनाव प्रक्रिया चलती रहती है, जिसका खामियाजा आम लोगों के साथ-साथ भारतीय अर्थव्यवस्था को भी भुगतना पड़ रहा है|
इसमें दो चीजों पर जोर दिया जाना चाहिये पहला इच्छा शक्ति (desirebility) तथा दूसरा व्यवहार्यता या औचित्य (feasibility)| यदि इच्छा शक्ति की बात करें तो यह विल्कुल ठीक है कि एक मतदाता एक ही मतदान केंद्र पर जाकर एक ही बार में तीन व्यक्तियों का चुनाव कर लेगा| यह उसके लिये सुविधाजनक भी होगा क्योंकि उसे बार-बार मतदान केंद्र पर नहीं जाना पड़ेगा, लेकिन हमें इस बात को भी ध्यान में रखना चाहिये कि मतदाता जब मतदान के लिये जाता है और अपने मताधिकार का प्रयोग करता है, तो वह एक ही समय में वोट डाल रहा होता है| इससे कहीं-न-कहीं लोकतांत्रिक सिद्धांतों (Democratic Principles) में थोड़ा सा हनन इसलिये होगा क्योंकि उसके मन में यह विचार अवश्य आएगा कि केंद्र में एक पार्टी के लिये वोट डालना है तो राज्य में भी उसी पार्टी को वोट करना है| शायद कहीं-न-कहीं उसका मंतव्य इस तरह का होगा| हमारे देश में संविधान तथा संवैधानिक प्रावधान सर्वोपरि हैं| रूल ऑफ लॉ से कुछ भी बड़ा नहीं है| आज पूरे देश में यदि एक साथ चुनाव कराना है तो संविधान में संशोधन करना पड़ेगा और इसके लिये सभी दलों का सहयोग प्राप्त करना होगा| क्या आज की तारीख में यह संभव है?
क्या ऐसा संवैधानिक प्रावधान संभव है कि विधानसभा को जल्द ही भंग कर दिया जाए| कई विधानसभाएँ इसके लिये तैयार नहीं होंगी| ऐसी स्थिति में क्या वर्तमान में कोई राजनीतिक दल विधानसभा भंग करने को तैयार होगा जिसको जनता ने पाँच साल के लिये चुना है|यदि विधानसभा को भंग करना है तो उसके लिये कानूनी प्रावधान का होना आवश्यक होगा| साथ ही, स्टेट ऑफ इमरजेंसी की घोषणा करनी पड़ेगी|
यह सही है कि एक साथ चुनाव कराने से सरकारी राजस्व और समय की बचत होगी, पालिसी मेकिंग प्रक्रिया प्रभावित नहीं होगी| अमूमन देखा जाता है कि जब चुनाव का समय नज़दीक आता है तो सरकार में मंत्रीगण काफी व्यस्त हो जाते हैं जिससे नीतियाँ प्रभावित होती हैं, चुनाव आचार संहिता लागू होने से विकास कार्य नहीं हो पाते| हमें इन चीजों पर भी ध्यान देना है साथ ही लोकतांत्रिक सिद्धांतों को भी देखना है|
परंतु विचार करने वाली यह बात है की भारत जैसे लोकतंत्र में एक देश-एक चुनाव व्यावहारिक हो सकता है? एक देश एक चुनाव को लेकर लोग कई देशों से तुलना कर रहे हैं| भारतीय लोकतंत्र में क्या यह मुश्किल नहीं होगा? शुरू में जो चुनाव हुए हैं वे इसलिये एक साथ हो पाए क्योंकि चुनाव बाद कोई सरकार गिरी नहीं| बाद में यह क्रम टूट गया और यह समस्या पैदा हुई कि एक साथ चुनाव कैसे कराए जाएँ| इसकी जड़ में सरकार का संसदीय स्वरूप (parliamentary form of government) है| जहाँ तक विदेशों की बात है, खासकर अमेरिका के मामले में, वहाँ के कानून में ही यह प्रावधान किया गया है कि हर चार साल बाद नवंबर के पहले मंगलवार को चुनाव होगा| इसकी वज़ह यह है कि वहाँ सरकारों के साथ कार्यपालिका और न्यायपालिका दोनों का कोई रिश्ता नहीं है| वहाँ कार्यपालिका की सारी शक्ति राष्ट्रपति या गवर्नर में निहित है| वहाँ की कार्यपालिका सदन के प्रति जवाबदेह नहीं होती जबकि भारत में कार्यपालिका निम्न सदन के प्रति जवाबदेह होती है| यदि भारत के संविधान में संशोधन कर सरकार के संसदीय स्वरूप को बदलकर प्रेसीडेंसियल फॉर्म ऑफ गवर्नमेंट किया जाता है तो इस समस्या का समाधान मुमकिन हो सकता है|
असली समस्या सरकार का संसदीय स्वरूप है| हमें या तो इसे बदलना होगा या लोकसभा के कार्यकाल को तय करना होगा कि वह पाँच साल से पहले भंग नहीं होगी और यदि किसी वज़ह से सरकार गिर जाती है तो प्रमुख पहले, दूसरे तथा तीसरे दल को विकल्प के रूप में मौका देना होगा कि वह सरकार बनाने का दावा पेश करे| अगर ऐसा नहीं हो पाता है तो यह प्रावधान करना होगा कि सदन ही अपना नेता चुन ले और जिसे सबसे ज़्यादा मत प्राप्त हों उसे, प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री बना दिया जाए,लेकिन इन मुद्दों पर बहस होनी चाहिये| यह तभी संभव है जब संविधान में संशोधन कर लोकसभा या विधानसभा का कार्यकाल तय किया जाए|
चुनावों के इस चक्रव्यूह से देश को निकालने के लिये एक व्यापक चुनाव सुधार अभियान चलाने की आवश्यकता है| इसके तहत जनप्रतिनिधित्व कानून में सुधार, कालेधन पर रोक, राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण पर रोक, लोगों में राजनीतिक जागरूकता पैदा करना शामिल है जिससे समावेशी लोकतंत्र की स्थापना की जा सके|
यदि देश में 'एक देश एक कर' यानी GST लागू हो सकता है तो एक देश एक चुनाव क्यों नहीं हो सकता? बार-बार होने वाले चुनावों के कारण एक सुव्यवस्थित और स्थायित्व वाली सरकार की ज़रूरत महसूस होती है| लेकिन इसके लिये सबसे ज़रूरी है सभी राजनीतिक दलों के बीच आम सहमति का होना और यह कार्य बेहद मुश्किल प्रतीत होता है। संविधान के अनुच्छेद 83 (संसद का कार्यकाल), अनुच्छेद 85 (संसदीय सत्र के स्थगन और समापन), अनुच्छेद 172 (विधानसभा का कार्यकाल) और अनुच्छेद 174 (विधानसभा सत्र को स्थगित करना और समापन करना) में संशोधन करना होगा| इसके बाद संविधान संशोधन के लिये दो-तिहाई बहुमत की भी ज़रूरत पड़ेगी, जिसे आम सहमति के बिना नहीं किया जा सकता। अतः अन्य व्यवहार्य विकल्पों पर गौर करने की ज़रूरत है|
मोदी जी का यह पंचवर्षीय काल देश की दशा और दिशा बदलने वाला होगा........नियत ओर नियति तो इसी ओर इशारा कर रही है,उत्तम लेख.....।
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