Shishu Ranjan |
चुनावी महापर्व की शुरुवात हो चुकी है। हर दल अपने अपने हिसाब से दमखम से चुनावी जंग में शामिल हो चूका है। इसके परिणामस्वरुप तरह तरह के हथियार, यानी की आरोप-प्रत्यारोप, चलाये जा रहे हैं। इस आरोप-प्रत्यारोप में सच और झूठ का फ़र्क़ मिट गया है। खबरों की विश्वसनीयता संदेहो के घेरे में रहती है। और इन संदेहो की आंच में भारतीय पत्रकार और मीडिया घराने भी जलने लगे हैं। शायद ही कोई मीडिया घराना हो, जिसपर पक्षपात का आरोप नहीं लगा हो। आरोप लगे भी क्यों नहीं, जब मीडिया घरानो का पक्षपात सबूत के साथ पकड़ लिया जाये।
पत्रकारिता जगत लोकतंत्र में दो महत्वपूर्ण भूमिकाये निभाता है। पहला, लोक और सत्ता के मध्य का वो कड़ी बनना, जिससे लोकसत्ता का निर्माण हो सके। इसके लिए पत्रकार जनता और सत्ता के मध्य संवाद की दोतरफा धारा बनता है, जिसमे सत्ता तक जनसंवेदना पहुंच सके और जनता तक सत्ता संवाद। दूसरा, सत्ता पर प्रखर नजर रखना जिससे सत्ता की विषमताएं, दुर्गुण, निरंकुशता, इत्यादि नियंत्रण में रहे। इसीलिए, पत्रकारिता को लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ का दर्जा प्राप्त है। परन्तु, जैसे निम्बू के साथ रहते रहते तीखी मिर्च भी अपना गुण तज देता है, ठीक उसी प्रकार सत्ता की गोद में बैठे पत्रकार भी अपना गुण त्याग कर बस प्रपंच का एक जरिया भर रह जाते है। पिछले दो दशक के इतिहास तो इसी तरफ इशारा कर रहा है।
यह स्तम्भ पिछले दो दशक से बिखरता नजर आ रहा है। ऐसा नहीं है की ये सिर्फ यह भारतवर्ष में हुआ है। यह विश्व के हर बड़े लोकतांत्रिक देश में कमोबेश यही स्तिथि देखने को मिल रही है। अगर अमेरिका की बात करे तो CNN और Times जैसे बड़े मीडिया घरानों की विश्वसनीयता संदेह के कठघरों में खड़ी है। ब्रिटैन में यही हाल BBC जैसे प्रतिष्ठित मीडिया घरानों का है। अगर हिन्दोस्तान की बात करें, तो यही हाल हर छोटे बड़े मीडिया घरानों का है। दशकों से पत्रकारिता में नाम कमाए पत्रकारों की विश्वसनीयता नगण्य हो गयी है, चाहे वो कारगिल युद्ध से प्रसिद्ध हुए बरखा दत्त हो या कड़े सवालों के लिए जाने वाले करण थापर। प्रश्न यह है की आखिरकार ये विश्वसनीयता खोने के कारण और कारक क्या है।
आजादी के लगभग ७० वर्षों के इतिहास में ६० वर्ष कांग्रेस या उनकी समर्थित सरकार का शासन रहा है। ऐसे में उन व्यक्तिओं की सूचि काफी लम्बी है जो इन सरकार से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जुड़े रहकर सत्ता की मलाई मारते रहे हैं। ऐसे में जब १९९८ में पहली बार दक्षिणपंथी भाजपा सरकार गठित हुई, तो ऐसे व्यक्तियों से भरे पड़े पत्रकारिता जगत के लोग की बेचैनी छलक पड़ी। अखबारों, पत्रिकाओं, और टीवी मुख्यालों में तरह तरह के षड़यंत्र रचे जाने लगे। उन्ही षड्यंत्रों की सफलता का परिणाम था की जहाँ एक ओर ताबूत घोटाला, प्रश्न पूछने के लिए पैसे लेने का घोटाला, और इस तरह के अन्य झूठे घोटालों के दम पर सत्ताधारियों के विरुद्ध गलत प्रचार किया गया, वही कांग्रेस के सभी विफलताओं और भ्रस्टाचारों को दफना दिया। यहाँ जनमानस को याद दिलाना जरुरी है की किस तरह गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री को एक दशक तक गोधरा के झूठे आरोपों में लिप्त कर सिर्फ देश नहीं बल्कि विश्व में एक अछूत बना दिया गया था जिसे अमेरिका और ब्रिटैन अपने यहाँ आने के लिए वीसा तक देने को तैयार नहीं थे। वही दूसरी तरफ सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री न बन सकने के बाद, जिसका कारण डॉ सुब्रमनियन स्वामी का डॉ अब्दुल कलाम को लिखा हुआ पत्र था, पत्रकारिता जगत ने भारतीय महिला के त्याग से जोड़ दिया था। २०१४ में श्री नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद वही बेचैनी अब बिमारी का रूप ले चुकी है, जिसकी कीमत पत्रकारिता जगत को अपनी विश्वसनीयता से चुकानी पड़ी है।
पिछले १० वर्ष के सूक्ष्म विश्लेषण से मामला दूध और पानी की तरह साफ हो जाता है। २००९-१४ के कार्यकाल में इसी मीडिया जगत ने मनमोहन सरकार के अनेकों भ्र्ष्टाचार के मामले को जनता तक पहुंचाया। स्पेक्ट्रम घोटाला, राष्ट्रमंडल खेल घोटाला, कोयला घोटाला, दामाद (जमीन) घोटाला, रक्षा सौदा घोटाला, मनरेगा घोटाला, आदर्श घोटाला, जज-नियुक्ति घोटाला, इत्यादि घोटाले ऐसे उदाहरण मात्र है, जिसमे राष्ट्र का अरबो-खरबों रुपयों का गोलमाल हो गया। पर भारतीय मीडिया कभी भी देश के तथाकथित सर्वप्रथम परिवार, यानी की सोनिया गांधी खानदान, पर कभी प्रश्न नहीं उठाये। वहीँ दूसरी और गोधरा का प्रश्न लिए हर पत्रकार तत्कालीन गुजरात मुख्मयंत्री के पीछे दौड़ता रहा। २०१४ के बाद जब श्री नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बन गए, उसके बाद तो मानो आसमान ही टूट पड़ा हो। ९०% मीडिया जगत एक होकर प्रधानमंत्री से दिन-रात सवाल पूछता रहता है। पर वही ९०% की हिम्मत नहीं होती की एक सवाल भी गांधी खानदान की दहलीज पे ले जाए। बेहरमी की हद तो तब हो जाती है, जब यही ९०% आरोप लगाते है की मोदी ने सभी मीडिया वालों को खरीद लिया है। यह तो वही बात हो गयी, उल्टा चोर कोतवाल को डांटें। अब अगर सब मीडिया बिक ही गयी है तो करण थापर, राजदीप सरदेसाई, बरखा दत्त, रविश कुमार, पुण्य प्रसून वाजप्येयी, सागरिका घोष, प्रणव रॉय, शेखर गुप्ता, येन राम, निधि राजदान, आशुतोष, और इनके जैसे असंख्य नाम बस मोदी को कोसने और राहुल को पूजने का काम क्यों करते नजर आते है।
अब वापस चुनावी जंग पर चर्चा करते है। पिछले दिनों प्रधानमंत्री मोदी को एबीपी न्यूज़ को दिए गए साक्षात्कार की खूब चर्चा रही। चर्चा का कारण मुख्य अंश नहीं, बल्कि साक्षात्कार का वह छोटा भाग था जिसे प्रसारित नहीं किया गया था। रहस्योद्घाटित वीडियो जो सोशल मीडिया में वायरल हो गया, में प्रधानमंत्री मीडिया घरानों से प्रश्न पूछ रहे है की आखिरकार ऐसी क्या मजबूरी है जो ये लोग गांधी परिवार से प्रश्न पूछते ही नहीं है। चुनाव शुरू होते ही प्रधानमन्त्री विभिन्न मीडिया घरानों को साक्षात्कार दे रहे है। लगभग हर साक्षात्कार में प्रधानमंत्री से रफाल रक्षा सौदे पर प्रश्न पूछा गया है। प्रधानमंत्री ने भी हर बार ऐसे प्रश्नो का उत्तर देते रहें है। इसके आलावा प्रधानमंत्री ने संसद में भी इसपर विस्तार से जानकारी दी है। इतना ही नहीं, देश के वित्त मंत्री और रक्षा मंत्री भी इस मसले पर अनेकों बार विस्तृत रूप से जानकारी दे चुकें हैं। अनियमितता के सवाल पे सर्वोच्च न्यायलय और CAG ने भी सरकार को साफ़ करार दिया है। परन्तु, इतना होने के वावजूद भी राहुल गांधी इस मामले में तरह तरह के झूठ फैलाते आ रहें है। अब प्रश्न ये हैं की आखिर मीडिया उनसे एक छोटा सा प्रश्न क्यों नहीं पूछती की आपके हर दिन के बदलते आंकड़ों के पीछे का गणित क्या है। मीडिया राहुल गाँधी से ये प्रश्न क्यों नहीं पूछती की आखिरकार करीब ६०,००० करोड़ के रक्षा सौदे में अनिल अम्बानी को ७०,००० करोड़ का फायदा कैसे मिल सकता है। इतना भी न बने तो यही पूछ ले की १० वर्ष में भी यह सौदा नहीं हो पाया, इसमें गांधी परिवार की क्या भूमिका है। शायद इन प्रश्नो के बाद राहुल गांधी की हिम्मत नहीं होती की अपने झूठ का प्रचार करे। ये कही न कही वही ९०% मीडिया की मेहरबानी से हो रहा है जो मोदी को हर हाल में हराना चाहता है।
अब गांधी परिवार से जुड़े अन्य मामलों पर प्रकाश डालते है जिसमे वही ९०% मीडिया उनसे कभी प्रश्न नहीं पूछती। पहला, ऑगस्टा रक्षा सौदा की दलाली के तार अब गांधी परिवार तक पहुंच गए है। इस मामले में बिचौलिए क्रिस्चियन मिचेल ने परवर्तन निदेशालय को पूछताछ के दौरान बताया है की दलाली का पैसा सीधा सीधा सोनिया गांधी और राहुल गाँधी तक पहुंचाया गया है। परन्तु, अर्णव गोस्वामी, सुधीर चौधरी, और रोहित सरदाना के अलावा इस मुद्दे पर किसी ने प्रश्न भी खड़ा नहीं किया। राहुल गाँधी से सीधा प्रश्न तो कोई भी पत्रकार नहीं कर पाया। है। किसी पत्रकार ने यह नहीं पूछा की आखिरकार भारतीय बैंकिंग प्रणाली की दयनीय स्तिथि में पहुंचाने में गांधी परिवार का क्या भूमिका है, या फिर नीरव मोदी और विजय माल्या जैसे लोगों को इतना बड़ा कर्ज कैसे और कब मिल गया। राहुल गाँधी अमूमन पत्रकार वार्ता करते रहते है। किसी भी पत्रकार ने उनसे आज तक नेशनल हेराल्ड पर प्रश्न नहीं पूछा है। हाल में ही मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ के सहयोगिओं से २८१ करोड़ रूपये बरामद किये गए। किसी पत्रकार ने उनसे इस बारे में एक प्रश्न नहीं किया। राष्ट्रमंडल खेल घोटाला हो या कोयला घोटाला हो या अभिषेक मनु सिंघवी के द्वारा किया सेक्स स्कैंडल हो जिसमे न्यायपालिका तक कठघरे में खड़ी हो सकती है, ये ९०% पत्रकारों ने एक भी प्रश्न पूछना मुनासिब नहीं समझा। ऐसे अनगिनत मामले है जिसमे गांधी परिवार भारतीय जनता के सामने निरुत्तर हो जायेगा, पर इन् पत्रकारिता जमात में कभी प्रश्न पूछने की हिम्मत नहीं हुई। आखिर क्यों?
इस क्यों का उत्तर है इन पत्रकारिता जगत के नामी मसीहों और गांधी परिवार का महागठबंधन। कांग्रेस के शासन काल में इन पत्रकारों के पास सत्ता की दलाली का जो ठेका मिलता है वो उन्हें शोहरत के साथ साथ धन-दौलत से भरा-पूरा कर देता है। इस महागठबंधन का पर्दाफाश नीरा राडिया टेप काण्ड से हुआ था जिसमे बरखा दत्त तरह तरह की दलाली ले रहीं थी, जिसमे मंत्रियो के लिए मंत्रालय आवंटन भी एक था। ध्यान रहे की मंत्रालय आवंटन का एकाधिकार सिर्फ और सिर्फ प्रधानमंत्री को जाता है। ऐसे में इन पत्रकारिता की आड़ में दलाली का धंधा कर रहे जमात का प्रधानमंत्री तक पहुंच रखना इनके गांधी परिवार के गठबंधन की तरफ इशारा करता है। पत्रकारों की दलाली और गांधी परिवार का भ्रस्टाचार का यह गठबंधन प्राकृतिक गठबंधन हो चूका है। उनका यह गठबंधन आम नागरिको के लिए ठगबंधन है, जो दिन-रात लोगो को ठगने का काम करता है। वह तो भला हो सोशल मीडिया का, जिसने आम नागरिक तक इस गठबंधन को चुनौती देने के हथियार दिया है। आम नागरिक सोशल मीडिया के माध्यम से मीडिया के दोगले चरित्र को सबके सामने खोल के रख देते हैं और यही बात इन ९०% पत्रकारों को नागवार गुजरती है। पर इस प्रश्न का की कब तक ये महाठगबंधन चलेगा, उत्तर अभी आस-पास नहीं दिख रहा। आशा है, जल्दी ही जनता को कोई आशा की किरण दिखे।
A rightful writing...
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