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पुरखों की परंपराओं को नजरअंदाज करते हुए आज के युग का आधुनिक दिवाली बाजारवाद के चपेट में..!

ई० कुणाल भारती
युवा उद्यमी
भारत त्यौहारों का देश है, यहाँ समय-समय पर विभिन्न जातियों समुदायों द्वारा अपने-अपने त्यौहार मनाये जाते हैं। दीपों का त्यौहार दीपावली भारतीय सभ्यता-संस्कृति का एक सर्वप्रमुख त्यौहार है। ऐतिहासिक दृष्टि से इस दिन से जुड़ी महत्वपूर्ण घटनाओं में सिक्खों के छठे गुरु हरगोविन्दसिंह मुगल शासक औरंगजेब की कारागार से मुक्त हुए थे । राजा विक्रमादित्य इसी दिन सिंहासन पर बैठे थे । सर्वोदयी नेता आचार्य विनोबा भावे दीपावली के दिन ही स्वर्ग सिधारे थे । आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द तथा प्रसिद्ध वेदान्ती स्वामी रामतीर्थ जैसे महापुरुषों ने इसी दिन मोक्ष प्राप्त किया था।
दिवाली प्रतीक हो गया है कि यह अंधकार पर प्रकाश की और असत्य पर सत्य की विजय का पर्व है| इस प्रतीकवाद की पुष्टि के लिए ही संस्कृत की उक्ति 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' पेश की जाती है। यह एक ऐसा प्रतीकवाद है, जो आधुनिक भारतीय चित्त को बहुत भाता है, क्योंकि इससे उसका राष्ट्रीय और सामाजिक गौरव बढ़ता है। ‘तमसो माँ ज्योतिर्गमय’ की वेदोक्ति हमें अन्धकार को छोड़ प्रकाश की ओर बढ़ने की विमल प्रेरणा देती है। अन्धकार अज्ञान तथा प्रकाश ज्ञान का प्रतीक होता है। जब हम अपने अज्ञान रूपी अन्धकार को हटाकर ज्ञान रूपी प्रकाश को प्रज्जलित करते हैं, तो हमे एक असीम व अलौकिक आनन्द की अनुभूति होती है,दीपावली भी हमारे ज्ञान रूपी प्रकाश का प्रतीक है। अज्ञान रूपी अमावस्या में हम ज्ञान रूपी दीपक जलाकर ससार की सुख व शान्ति की कामना करते हैं। दीपावली का त्यौहार मनाने के पीछे यही आध्यात्मिक रहस्य निहित है।

ज्यादा सच तो यह आख्यान प्रतीत होता है कि 14 वर्ष का वनवास काटने और लंका पर विजय प्राप्त करने के बाद राम के अयोध्या लौटने पर अयोध्यावासियों ने दीप जलाकर उनका स्वागत किया था और खुशियां मनाई थीं तभी से दीपावली मनाने की परंपरा शुरू हुई। इस लिहाज से यह सुशासन कायम होने का उत्सव है। भारत में सुशासन की कल्पना राम-राज्य से जुड़ी रही है। लेकिन हमारे देश ने इतने लंबे समय तक सुशासन ही नहीं, शासन का भी ऐसा नितांत अभाव देखा है कि राम-राज्य की कसक उसके अंतरमन में बैठ गई है।आजादी के बाद देश की जनता को महात्मा गांधी की कल्पना के अनुरूप राम-राज्य नहीं मिला। उसे जो मिला था, वह कांग्रेसी राज था। बाकी का सत्य तो हम सबके सामने है|वैसे दीपावली खासतौर पर लक्ष्मी की पूजा-आराधना का पर्व है। लक्ष्मी यानी धन-धान्य और ऐश्वर्य की देवी। इस आधार पर हमारा देश जितना आध्यात्मिक है, उतना ही भौतिकवादी भी। हम ज्ञान के साथ-साथ ही समृद्धि की भी उपासना करते आए हैं, क्योंकि हमें अपने परलोक को ही नहीं, इहलोक को भी सुंदर और सफल बनाना है। लक्ष्मी भगवान विष्णु की पत्नी हैं। हमारे धर्म-शास्त्रों में विष्णु को इस सृष्टि का सूत्रधार माना गया है। वे ही सृष्टि का संचालन और पालन-पोषण करते हैं। जाहिर है कि इस दायित्व का निर्वाह वे अकेले नहीं कर सकते। इसमें उन्हें अपनी पत्नी लक्ष्मी का सहयोग चाहिए। इन पौराणिक प्रतीकों के माध्यम से हमारे शास्त्र-रचयिता ऋषियों-मनीषियों ने संभवत: यह संदेश देना चाहा हो कि हमें धन की उपासना तो अवश्य करनी चाहिए लेकिन वह उपासना इस तरह हो, जैसे पूजा की जा रही हो अर्थात भौतिकता के साथ पवित्रता का भाव भी जुड़ा हुआ हो। अनैतिक साधनों से अर्जित किया गया धन जीवन में अभिशाप ही पैदा करता है। इसकी पुष्टि हमारे देश के मौजूदा हालात देखकर भी होती है। देश ने विदेशी दासता से आजाद होते ही धन की उपासना शुरू कर दी थी। देशी शासकों ने देशवासियों को सुखी और समृद्ध बनाने के लिए तरह-तरह के यत्न शुरू किए। पंचवर्षीय योजनाएं बनाई जाने लगीं। बड़े-बड़े कल-कारखाने लगाए गए। जीवनदायिनी नदियों का प्रवाह रोककर या मोड़कर बड़े-बड़े बांध बनाए गए। हरित क्रांति के जरिए देश खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बना। आर्थिक असमानता दूर करने के लिए जहां जमींदारी प्रथा खत्म की गई तो वहीं सामाजिक गैरबराबरी खत्म करने के लिए दलितों, आदिवासियों और अन्य पिछड़े वर्गों को विशेष अवसर दिए गए। स्पष्ट तौर पर यह उपासना समाजवादी संपन्नता की थी,लेकिन चूंकि इस संपन्नता के लिए अपनाए गए तौर-तरीके कतई समाजवादी नहीं थे इसलिए गरीबी के विशाल हिन्द महासागर में समृद्धि के कुछ टापू ही उभर पाए। बहुराष्ट्रीय वित्तीय सेवा कंपनी क्रेडिट सुइस की ग्लोबल वेल्थ रिपोर्ट-2015 भी इस तथ्य की पुष्टि करती है। इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत का मध्यवर्ग दुनिया के कुल मध्यवर्ग का मात्र 3 फीसदी है, जबकि चीन में इस तबके की संख्या भारत से 10 गुनी ज्यादा है यानी दुनिया की कुल मध्यवर्गीय आबादी में एक-तिहाई हिस्सा चीन का है। 

जाहिर है कि देश में सपनों का सौदागर मध्यवर्ग अपनी हैसियत पर चाहे जितना इठला ले और कूद-फांद कर ले, पर दुनिया के पैमाने पर अभी उसकी कोई खास हैसियत नहीं बन पाई है। यह स्थिति तब है जबकि हम तथाकथित समाजवाद के रास्ते या कि मिश्रित अर्थव्यवस्था का पूरी तरह परित्याग कर चुके हैं। 

 वर्ष 1991 में विदेशी मुद्रा भंडार के खाली हो जाने से उपजे संकट से हमारी अर्थव्यवस्था की दिशा ही बदल गई। तकरीबन चार दशकों से चली आ रही लाइसेंस राज की समाप्ति हुई, जो कि शायद देश के विकास में बाधा थी| तब के प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव और उनके वित्तमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की जोड़ी ने उदारीकरण यानी बाजारोन्मुख अर्थव्यवस्था का रास्ता अपनाया, जो कि पूंजीवाद का ही नया संस्करण है। इसे थोड़े कठोर शब्दों में इसे 'आवारा पूंजीवाद' भी कहा जा सकता है।  वर्तमान परिस्थितियों में हम बाजारवाद की पूरी तरह से गिरफ्त में है| भारत आज विश्व का सबसे बड़ा वैश्विक बाजार है| जब से उदारीकरण हुआ तब से पूरी दुनिया की नजर भारत पर है| भारत में किन शर्तों पर उदारीकरण हुआ शायद यह बात हम सब से छुपा हुआ नहीं है| विश्व के विकसित देशों और आईएमएफ ने अपना अपना खेल खेला| एक सिद्धांत यह भी कहा जाता है कि सन 1995 में तत्कालीन विश्व सुंदरी ऐश्वर्या राय को जब विश्व सुंदरी खिताब से नवाजा गया था तो वह एक सोची-समझी साजिश के तहत किया गया था, क्योंकि देश की अर्थव्यवस्था में बदलाव आ रहा था, देश एक बड़ा बाजार था, और एकदम अनुकूल समय था या यूं कहें तो आज का भारत तैयार था कि यहां पर विदेशी कॉस्मेटिक, स्टाइलिश परिधान, ग्लैमर यहां के युवा तक पहुंचाया जा सके| खैर इन बातों में कहां तक सच्चाई है यह मुझे नहीं पता।
भारतीय आर्थिक-दर्शन और जीवन-पद्धति के सर्वथा प्रतिकूल 'पूंजी ही जीवन का अभीष्ट है' के अमूर्त दर्शन पर आधारित इस नव उदारीकरण की अर्थव्यवस्था को लागू हुए दो दशक से भी ज्यादा समय हो चुका है और तब से लेकर आज तक हम एकाग्रभाव से बाजारवाद की ही पूजा-अर्चना कर रहे हैं। लक्ष्मी अब लोक की देवी नहीं, बल्कि ग्लोबल प्रतिमा बन गई हैं। उसकी पूजा में अब लोक-जीवन को संपन्न बनाने की इच्छा कम और खुद को समृद्ध बनाने की लालसा ज्यादा व्यक्त की जाती है। 
अगर एक आंकड़े को माने तो वर्ष 2016 में देशभर में कुल दीपावली के अवसर पर चीनी वस्तुओं किए गए खरीदारी का अनुमान 6500 करोड़ था| जिसमें से की 4000 करोड़ की फैंसी आइटम्स और आधुनिक लाइटिंग पर खर्च की गई थी| इसमें कोई संदेह नहीं है कि अभी वैश्वीकरण का दौर है| तथा विकसित देशों के लिए भारत एक वैश्विक बाजार है| आज के इस अर्थव्यवस्था के दौर में पूरी दुनिया की नजर भारत पर है क्योंकि यह काफी तेजी से एक बड़ा बाजार बनता जा रहा है| शायद इन्हीं कारणों से भारत एक बड़ा बाजार है,चीन के लिए| पिछले वर्ष दिवाली पर किए गए कुल खर्च का अनुमान 25 हजार करोड़ लगाया जा रहा है| गौरतलब हो जिसका की मूल कारण ई-कॉमर्स हो सकता है| ई कॉमर्स में पिछले 5 सालों में काफी तेजी से भारतीय बाजार पर अपनी पकड़ बनाई है| दिवाली हो और पटाखों की बात ना हो तो यह एक प्रकार की बेमानी है| तकरीबन दो हजार करोड़ रुपए का पटाखे हम भारतीयों ने जलाकर खाक कर दिया| यह तो वही बात हुई कि इतनी बड़ी धनराशि को बस हमने माचिस की तीली से जला दिया| खैर त्यौहार है सब चलता है, पर यह कहां तक उचित है कि उसके वजह से हुई प्रदूषण से अपने ही वायुमंडल को नष्ट किया| अगर इतना बड़ा धनराशि वायुमंडल को बचाने में खर्च किया जाता तो शायद आने वाली पीढ़ी हमें धन्यवाद देती|
दीपावली पर चीन में बने सामानों की धमक कुछ ज्यादा ही दिखाई देती है| पिछले कुछ वर्षो की तरह इस बार भी दिवाली पर बाजार चीन में बने सामानों से अटे पड़े हैं. लक्ष्मी-गणोश, उनके वस्त्र और श्रृंगार, डिजाइनर दीये, बिजली की लड़ियां समेत अन्य इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं से बाजार भरा पड़ा है|  चीनी माल सस्ता होने के कारण इनके खरीदारों की कमी नहीं है|केंद्र सरकार ने भी पहली बार एक्सप्लोसिव एक्ट, 2008 के प्रावधानों का इस्तेमाल करते हुए विदेशी पटाखों की खरीद-बिक्री को दंडनीय बना दिया है|लेकिन, सरकारी प्रतिबंधों के बावजूद चीन के पटाखों की बिक्री धड़ल्ले से की जा रही है|गैर- कानूनी तरीके से भारत आने के कारण चीन में बने पटाखे असंगठित श्रेणी में बिक रहे हैं, जिसके कारण देसी पटाखों की बिक्री में गिरावट आयी है|चीन में बने सामानों की सबसे बड़ी विशेषता है कि ये बिना किसी गारंटी के आसानी से बिक जाते हैं| ‘यूज एंड थ्रो’ यानी ‘इस्तेमाल करो और फेंक दो’ की संस्कृति में चीन में बने सामान पूरी तरह फिट बैठ रहे हैं| यही कारण है कि दुकानदार द्वारा ‘बिके हुए सामान की कोई गारंटी नहीं’ का बोर्ड लगाये जाने के बावजूद खरीदारों की संख्या कम नहीं हो रही| चीन के सामानों के भारतीय बाजारों में छा जाने की एक वजह हमारी खामियां भी हैं| भले ही हम देशभक्त होने का दम भरते हों, लेकिन एक ग्राहक के रूप में हमारा व्यवहार ठीक इसके उलट है|दुकानदार चीन में बने सामानों का कोई बिल नहीं देते और सामान के वापसी की गारंटी भी नहीं लेते, फिर भी ग्राहक इन सामानों की ज्यादा मांग करते हैं| चीनी सजावटी सामान सस्ता और आकर्षक देखा जाये तो चीन में बने पटाखों और सजावटी सामानों की लोकप्रियता का कारण उनका सस्ता और आकर्षक होना भी है| उदाहरण के लिए देश में बनने वाले ब्रांडेड और वैध पटाखों की तुलना में चीन में बने पटाखे सस्ते पड़ते हैं| यही कारण है कि चीन से आने वाले पटाखों को टक्कर देने के लिए पटाखों का अवैध निर्माण तेजी से फल-फूल रहा है| इसे विडंबना ही कहा जायेगा कि जहां चीनी पटाखों से भारतीय बाजार अटा पड़ा है, वहीं भारत से पटाखों के निर्यात पर प्रतिबंध लगा है|  दूसरी बाधा यह है कि पटाखा उद्योग में इस्तेमाल किये जाने वाले कई रसायनों की खरीद पर रोक लगी है| गौरतलब है कि केंद्र सरकार ने 1992 में एक अधिसूचना जारी कर ऐसे किसी भी तरह के विस्फोटक के उत्पादन, भंडारण, इस्तेमाल और खरीद-बिक्री को प्रतिबंधित कर दिया गया था, जिसमें क्लोरेट के साथ सल्फर या सल्फ्यूरेट का प्रयोग किया गया हो| इसके बाद एक्सप्लोसिव एक्ट 2008 के तहत अब तक पटाखों के आयात के लिए लाइसेंस की मंजूरी नहीं दी गयी है| 

डिजाइनों और ब्रांडों के बोलबाले ने मिट्टी की लक्ष्मी प्रतिमाओं और कुम्हार के कलाकार हाथों से ढले दीयों को भी डिजाइनर बना दिया है। डिजाइनर दीयों के साथ ही ब्रांडेड मोमबत्तियां और मोम के दीयों का भी चलन बढ़ गया है। पारंपरिक मिठाइयों की जगह अब ब्रांडेड मिठाइयों और मुनाफाखोर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के चॉकलेटों ने ले ली है। 

दीपावली पर उपहारों और मिठाइयों के आदान-प्रदान का चलन पुराना है लेकिन पहले उनमें गहरी आत्मीयता होती थी। अब जिन महंगे उपहारों और मिठाइयों का लेन-देन होता है उनमें से आत्मीयता और मिठास का पूरी तरह लोप हो गया है और उनकी जगह ले ली है दिखावे और स्वार्थ ने यानी अब राजनीति के साथ-साथ हमारी संस्कृति और सामाजिकता भी बाजार के रंग में रंग गई है। दीपावली समेत हमारी लोक-संस्कृति से जुड़े तमाम त्योहारों, पर्वों और यहां तक कि महिलाओं द्वारा किए जाने वाले करवा चौथ और हरतालिका तीज जैसे व्रतों को भुनाने में भी बाजार अब पीछे नहीं रहता।

 निस्संदेह बाजारवाद से देश में समृद्धि का एक नया वातावरण निर्मित हुआ है। महानगरों में एक बड़े वर्ग के बीच हमेशा उत्सव का माहौल रहता है, लेकिन उनके इस उत्सव में न तो बहुत ज्यादा सामाजिकता होती है और न ही इसके पीछे किसी प्रकार की कलात्मकता। उसमें जो कुछ होता है, उसे भोग-विलास या आमोद-प्रमोद का फूहड़ और बेकाबू वातावरण ही कह सकते हैं। यह सब कुछ अगर एक छोटे से तबके तक ही सीमित रहता तो कोई खास हर्ज नहीं था, लेकिन मुश्किल तो यह है कि 'यथा राजा-तथा प्रजा' की तर्ज पर ये ही मूल्य हमारे राष्ट्रीय जीवन पर हावी हो रहे हैं। जो लोग आर्थिक रूप से कमजोर हैं या जिनकी आमदनी सीमित है, उनके लिए बैंकों ने 'ऋणं कृत्वा, घृतम्‌ पीवेत' की तर्ज पर क्रेडिट कार्डों और कर्ज के जाल बिछाकर अपने खजाने खोल रखे हैं। लोग इन महंगी ब्याज दरों वाले कर्ज और क्रेडिट कार्डों की मदद से सुख-सुविधा के आधुनिक साधन खरीद रहे हैं। विभिन्न कंपनियों के शोरूमों से निकलकर रोजाना सड़कों पर आ रहीं लगभग 5 हजार कारों और शान-ओ-शौकत की तमाम वस्तुओं की दुकानों और शॉपिंग मॉल्स पर लगने वाली भीड़ देखकर भी इस वाचाल स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है।

कुल मिलाकर हर तरफ लालसा का तांडव ही ज्यादा दिखाई पड़ रहा है। तृप्त हो चुकी लालसा से अतृप्त लालसा ज्यादा खतरनाक होती है। देशभर में बढ़ रहे अपराधों- खासकर यौन-अपराधों की वजह यही है। यह अकारण नहीं है कि देश के उन्हीं इलाकों में अपराधों का ग्राफ सबसे नीचे है जिन्हें बाजारवाद ज्यादा स्पर्श नहीं कर पाया है। यह सब कहने का आशय विपन्नता का महिमा-मंडन करना कतई नहीं है, बल्कि यह अनैतिक समृद्धि की रचनात्मक आलोचना है। ऐसी आलोचना नहीं होनी चाहिए क्या..?

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