Skip to main content

प्रवासी मजदूर - आगमन से प्रस्थान तक

कौशलेंद्र दुबे (अभियंता)
जब पूरा भारत 10 मार्च को होली का रंग और गुलाल उड़ा रहा था तब चीन से चल कर कोरोना महामारी भारत में दस्तक दे चूका था। रंगो के उल्लास में भारत के लोगों ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि कोरोना महामारी भारत को इस कदर जकड़ लेगा। उस समय तो वित्तीय वर्ष अपने समापन के तरफ बढ़ रहा था और देश के सारे औद्योगिक घराने अपने बचे हुए काम इसी वित्तीय वर्ष में खत्म करने और साथ में नए वित्तीय वर्ष के रूप-रेखा के संरचना में व्यस्त थे।

देश के सारे औद्योगिक घरानो के लोग और साथ में काम करने वाले कामगार निश्चिंत होकर बिना किसी डर भय के अपने घरों से दूर देश के कोने कोने में भारत के अर्थवयवस्था को मजबूत बनाने में दिन रात एक किये हुए थे। हालांकि इटली से कोरोना संक्रमण और उससे उन्होंने वाले मौत की जो तस्वीर निकल के आ रही थी, उससे संक्रमण की गम्भीरता का पता चल रहा था, परन्तु तब भी देश में इस संक्रमण को ले कर कोई खास सजगता नहीं दिख रही थी। लेकिन २२ मार्च को हमारे प्रधानमंत्री जी के द्वारा एक दिवसीय जनता कर्फ्यू की घोषणा के बाद कोरोना की गंभीरता को लोगो के द्वारा महसूस किया गया। सामाचार पत्रों और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के माध्यम से दिन भर कोरोना की ख़बरें चलती रहीं और फिर २४ मार्च से देश भर में देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा कर दी गयी। देशव्यापी लॉक डाउन के घोषणा से पहले कई राज्यों में लॉक डाउन लग चूका था। 

लॉक डाउन एक परिचित शब्द तो जरूर था जिसे हम लोग कहीं न कहीं पढ़ते जरूर थे, लेकिन इसका अपने जीवनकाल में लागू होते देखना एक अज्ञात खतरे के तरफ इशारा कर रहा था। शायद ही किसी ने कल्पना की होगी की इस लॉक डाउन को लम्बे समय तक भोगना होगा। लेकिन सरकार के द्वारा व्यापक प्रचार से कहीं न कहीं लोगों के मन में डर ख़त्म करने की कोशिश जरूर हुई। सम्पूर्ण लॉक डाउन भारत जैसे देश के लिए एक बहुत बड़ा कदम था। देश के चलते अर्थवयवस्था को अचानक से रोक देना एक साहसिक कदम था जिसका प्रभाव लम्बे समय तक झेलना पड़ सकता है। अगले दिन से पूरा देश जहाँ था वहीँ थम गया। सारे कल कारखाने थम गए, राष्ट्रीय राज्यमार्गों पर चलने वाली सभी बड़े और छोटे वाहन जहाँ थे वहीँ रॉक दिए गए, उम्मीद थी की इस व्यापक लॉक डाउन से कहीं न कहीं कोरोना के बढ़ते हुए खतरे को रोका जा सकता है। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की रीढ़ माने जाने वाली रेल गाडी को भी कोरोना के असर से दो चार होना पड़ा जिससे ट्रेने भी थम गई। ये लम्हा ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे चलती हुई सांस रोक दी गयी हो, बच्चे के मोबाइल में वीडियो गेम खेलते वक़्त मोबाइल हैंग हो गयी हो, अथवा टीवी पर चल रहे प्रोग्राम अचानक से तक्नीकी खराबी के कारण रुक गयी हो। 

जो भाई बंधू अपने घरों से दूर लेकिन अपने परिवार के साथ देश के दूसरे हिस्से में अपना जीवन यापन कर रहे थे वो तो अपने घर टीवी में कोरोना महामारी पर चल रहे प्रोग्राम को देख रहे थे, लेकिन देश में एक बड़ा तबका ऐसा भी था जो रोज कमाता और रोज खाता था। काम पर गए तो घर में चूल्हा जले और जिस दिन काम नहीं मिले, उस दिन घर में खाना कैसे बनेगा, यह एक सवाल खड़ा रहता  हैं। शीत लहर हो, गर्म लू के थपेड़े हो या भारी बरसात जो आये दिन अपनी नए कीर्तिमान बना रही है, इनको अपने घरों से निकल कर दो जून के रोटी के लिए जाना ही पड़ता है। ऐसे लोगो के आगे लॉक डाउन एक बहुत बड़ी विपदा के रूप में आ पड़ी थी जो उनके अस्तित्व पर ही अब सवाल खड़ा कर रही थी। ये ऐसे असंगठित क्षेत्र के लोग थे जिनके पास अपने घरों से दूर दिहाड़ी मजदूरी का ही सहारा था। ऐसी घडी में वो लोग तो न घर के ही थे न ही घाट के, क्योकि सारे रोजगार के साधन बंद हो चुके थे, आने जाने के लिए सारे ट्रेनें और बस बंद हो चुकी थी और जो जहाँ थे उनको वही पड़े रहना था। 
ऐसी परिस्थति में बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखण्ड और बंगाल के कामगार जो पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, और दक्षिण के राज्योँ में अपना गुजर बसर कर रहे थे, उनको सबसे ज्यादा प्रभावित किया। उनके पास वापसी का कोई साधन नहीं था, था तो सिर्फ लॉक डाउन के ख़त्म होने का इंतज़ार जिसे वो अपनी जीवन बसर शुरू कर सके या अपने घर को वापस हो सके। लेकिन निकट भविष्य में तो सहारा भगवान भरोसे ही था। सरकार के द्वारा बहुत सारे राहत पैकजों की घोषणा तो हुई, लेकिन तत्कालीन लाभ मिल पाना मुश्किल सा दिख रहा था। आकड़ों की माने तो जून के मध्य तक 30 लाख से अधिक बिहारी मजदुर अन्य राज्यों से अपने घर वापस आ गए जो मुख्यतः असंगठित क्षेत्र में कार्यरत थे। हालांकि वापस आये मात्र 30 लाख संख्या को देखते हुए बिहार के बाहर प्रवासी कामगारों की संख्या का आकलन करना असंभव सा है। 

हमारे देश ने वो भी मंजर इस लॉक डाउन के दौरान देखा कि किस तरीके से प्रवासी मजदूर चाहे वो किसी भी प्रदेश के हों अपनी जिंदगी बचाने के लिए बिना कुछ सोचे समझे रेल गाडी के पटरियों के किनारे किनारे, राष्ट्रीय राज्यमार्गो पर पैदल चलते हुए दिखे। कुछ लोग अकेले चल रहे थे तो कुछ झुंड में। रास्ते कितने लम्बे होंगे, बिना परवाह किये चल पड़े थे अपने घरों के तरफ इस उम्मीद में की आखिर वहां पहुँच का वहां की सरकार उनकी कुछ सुध लेगी और उनके जीविकोपार्जन का उपाय करेगी। 
जब कई राज्यों से ये कामगार सरकार से अपने घर वापसी का गुहार लगा रहे थे और अपनी मांग पूर्ति के लिए सड़को पे उतर कर प्रदर्शन कर रहे थे तब सरकार ने उनके घर वापसी का प्रबध करते हुए स्पेशल श्रमिक ट्रेनों का संचालन शुरू किया और जून के मध्य तक करीब 1500 ट्रेनें बिहार के कई जिलों में श्रमिकों को पहुचाई। 

केंद्र की सरकार ने प्रवासी श्रमिकों के लिए ट्रेनें चलवा कर अपना काम तो पूरा किया लेकिन इतनी बड़ी संख्या में लौट रहे इन प्रवासी श्रमिकों को अपने राज्य में रोजगार उपलध करवाना बिहार सरकार के लिए तो बहुत ही टेडी खीर थी। सब जानते हैं की बिहार में संसाधन की खासी कमी है, न ही कोई बड़े उद्योग धंधे है, न उत्पादन शक्ति जिसके कारण सबको रोजगार मुहैय्या करवा पाना बहुत मुश्किल है। जो थोड़े बहुत कंस्ट्रकशन के कार्य चल भी रहे थे वो भी लॉक डाउन के कारण बंद कर दिए गए थे। साथ ही साथ दूसरी समस्या तो ये भी थी जो श्रमिक और कामगार लौट रहे थे वो विभिन्न क्षत्रों के कुशल और अकुशल कामगार थे और उनके कौशल के मुताबिक रोजगार उपलब्ध करवाना बहुत ही मुश्किल काम था । 
बिहार सरकार ने स्किल मैपिंग की व्यवस्था की जिसे लौट रहे श्रमिकों की स्किल मैपिंग करवा कर उनके मुताबिक रोजगार की व्यवस्था की जाये। लेकिन सरकार इतने बड़े संख्या में स्किल मैपिंग करवा कर उनको रोजगार देगी कहाँ। मुझे इससे यह फायदा जरूर समझ आता है की सरकार के पास एक डाटा बैंक जरूर तैयार हो जाएगा। सरकारी आंकड़ों के अनुसार जून के मध्य तक करीब 29 लाख श्रमिकों की स्किल मैपिंग की गई जिसमे से करीब 18 लाख कुशल श्रमिक पाए गए और इनमे से भी कंस्ट्रकशन वर्कर सबसे ज्यादा थी। सरकार की योजना भी यह ही थी की इन लोगों का स्किल मैपिंग करवा कर उनके अनुसार उद्योगों को बुला कर बिहार के अंदर रोजगार के संभावना तैयार की जायेगी। लेकिन ये जब होगा तब देखा जाएगा, फिलहाल तो यह ठन्डे बस्ते में डाला जा चूका है।  क्या मनरेगा जैसे सरकारी नीति, जो मौजूदा श्रमिकों को पुरे वर्ष रोजगार उपलब्ध नहीं करवा पातीं, उनके साथ इनको सामाहित किया जा सकेगा, ये एक यक्ष प्रश्न बन कर उन श्रमिकों के आगे खड़ा था जो इस उम्मीद में अपने घर को लौटें थे की घर पे जा कर काम धंधा करके अपना जिंदगी चलाएंगे। 

साथ ही साथ इस बात को भी नाकारा नहीं जा सकता की जो श्रमिक भाई जिस राज्यों से वापस आये थे वहाँ के उद्योग धंधों को भी भारी झटका लगा था। लॉक डाउन में दिए गए ढील के बाद जब फैक्टरियां दुबारा से स्टार्ट किये गए, कंस्ट्रकशन कार्योँ को दुबारा पटरी पर लाने की कोशिश शुरू की गयी, तब इन श्रमिकों के न होने से उनको भी नुक्सान पहुँचने लगा। तुरंत उनके पास भी कोई उपाय दिख नहीं रहा था। पंजाब और हरियाणा में धान की बुआई शुरू होनी थी। बिहारी मजदूरों के अभाव में उनके कृषि कार्यों पर बहुत बुरा असर पड़ना शुरू हुआ। एक तरीके से कहे तो सारा देश उथल पुथल के माहौल से गुजर रहा था। मई महीने में बिहार के खगड़िया जिले से करीब 600 के आस पास श्रमिक इस लॉक डाउन के अवधी में ही दक्षिण के राज्यों के राइस मिल में काम करने चले गए। गरीब श्रमिक अपने रोजी रोजगार के नहीं होने से परेशान थे तो उद्योग पति इन श्रमिकों के नहीं होने से बंद पड़े उद्योग में होने वाले नुकसान से। समझने की बात ये थी की श्रमिक और उद्योग एक दूसरे के पूरक हैं। बिहार जैसे राज्यों में संशाधन में अभाव के कारण सस्ते मानव संशाधन की उपलब्धि उन राज्योँ को मिल रहा है जहाँ सम्पूर्ण मात्रा में संशाधन उपलब्ध है और कम पैसों में रोजी रोटी के लिए वैसे राज्यों में बिहार के लोग जाने पर विवश हैं।

ऐसा देखा जा रहा है की जुलाई से ही बिहार के राष्ट्रीय राजमार्गो के ऊपर दूसरे राज्यों के लक्ज़री बस लगता आ जा रहे हैं। वो बसें टूरिजम के लिए नहीं बल्कि ऐसे श्रमिकों को लेने के लिए दूसरे राज्यों से आ रहीं हैं और उनको लेकर वापस जा रहीं हैं। मजेदार बात ये है की जो कामगार किसी तरीके से ट्रेनों में बड़ी मुश्किल से अपने घरों को लौटे थे उन्हें ही लेने दूसरे राज्यों से अब लक्ज़री बसे उनको लेने आ रही है। क्या ये उन गरीब कामगारों के साथ मज़ाक नहीं है। इस मजाक के वावजूद बिहार सरकार अपने हाँथ पर हाँथ धरे बैठा हैं और बिहारवासी देख रहे हैं कि कैसे ये श्रमिक, जो अपने घरों को पैदल या ट्रेनों से लॉक डाउन में अपने आजीविका के लिए लौटे थे, वापस उन प्रदेशों से भेजे हुए लक्ज़री बसों में बैठ कर जा रहे हैं। ये तो राज्य सरकार के लिए सबसे बड़ी संकट की घडी कही जा सकती है क्योकि सरकार से उम्मीद के साथ ये कामगार लौटे थे। अब वो तो ठगा सा महसूस कर रहे होंगे क्योकि सरकार ने शुरुवात में तो बड़े जोर शोर से स्किल मैपिंग की बात की थी लेकिन बाद में उसपर बात करनी बंद कर दी गयी। शायद सरकार को ये समझ आय गया होगा की उनके लिए रोजगार मुहैया करवाना आसान नहीं होगा। साथ ही साथ जो श्रमिक वापस लौटे थे उनके मन में सरकार के प्रति संतोष तो व्याप्त था नहीं, क्योकि सरकार के कहीं न कहीं नाकामियों के कारण उनको दूसरे राज्यों में जाकर रहना पड़ रहा था और लॉक डाउन के दौरान उनको कोई खास सहयोग मिलता दिख नहीं रहा था। बिहार सरकार जरूर बिहारी प्रवाशी मजदूरों को एक हजार रूपये भेजे रहे थे लेकिन वो भी उनके व्य्वस्था को पूरी तरीके से अमली जामा पहनने के किये काफी नहीं था। 

ये भी कहना गलत नहीं होगा की जो प्रवाशी मजदूर वापस आये थे वो अल्पदृष्टि के हैं। बाहर से आये श्रमिकों के लिए बिहार चुनाव का यह वर्ष सरकार के ऊपर रोजगार उपलध करवाने के लिए दबाव बनाने का उपुक्त समय था, जिसे वो वापस जा कर गवाँ रहे हैं। इसीलिए इनके वापसी से सरकार अंदर ही अंदर जरूर प्रसन्न होगी क्योकि उनका यहाँ रहना सरकार पर दूरगामी प्रभाव डालने के लिए काफी था। 

आखिर में मेरा प्रश्न इन श्रमिकों  वाले अन्य राज्य के उधोगपतियों की दूरदर्शिता पर भी हैं। उद्योगपति, जो उतने दूर से ऐसे लक्ज़री बसे भेज सकते हैं, वो इन कामगारों को अपने पास रख कर इनको दो जुन की रोटी उपलबध क्यूँ नहीं करवा सकते थे। अगर राज्य सरकार आत्मनिर्भर भारत के प्रावधानों का उपयोग करके अगर कल-कारखाने या उधोग-धंधे लगवाती तो इन प्रवासी श्रमिकों को अपने प्रदेश में ही रोजगार मिलता और इस तरह बिहारी श्रमिकों को शोषण से बचाया जा सकता। अभी तो मजदूरों के लिए सिर्फ एक ही बात मन में आती है की "आया राम और गया राम"।

Comments

  1. Replies
    1. Very nice to see such insights from an Engineer. Beautifully penned down.

      Delete
  2. Excellent read.. Keep writing

    ReplyDelete
  3. बड़ी कड़वी बात कही है आपने। लगता है गरीब मजदूर इंसान नहीं होते।

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

एक देश-एक चुनाव

कुणाल भारती राजनीतिक एवं सामाजिक विश्लेषक 15 अगस्त 1947 के दिन भारत को बरतानिया सरकार के हुकूमत से आजादी मिली| तकरीबन 2 वर्ष से अधिक के कड़ी मशक्कत और रायसिना हिल्स में हुए रात दिन संविधान सभा बैठकों के बाद विश्व का सबसे बड़ा संविधान भारत को मिला, निश्चित रूप से भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहलाया| 26 जनवरी 1950 को भारत एक नए गणतंत्र के रूप में दुनिया में अपनी नई पहचान बनाई तथा संविधान पारित हुआ | लोकतांत्रिक व्यवस्था से इतने विशाल देश को चलाने के लिए प्रतिनिधि निकाय की भी आवश्यकता पड़ी, इन्हीं वजह से उसी प्रतिनिधित्व को पूरा करने के लिए देश में पहली बार 1951-52 में आम लोकसभा चुनाव हुए ताकि भारत की जनता अपने इक्षा मुताबिक अपनी सरकार का चयन कर सके| गौरतलब है की वर्तमान में भारत में तीन स्तरीय शासन व्यवस्था है | भारत की चुनाव प्रणाली जर्मन सिस्टम पर आधारित है| प्रथम चुनाव में देश में लोकसभा एवं विधानसभा के चुनाव साथ साथ हुए तथा यह सिलसिला अगले डेढ़ दशक तक यानी कि 1957,1962 और 1967 के चुनाव में चलता रहा,लेकिन उसके बाद राज्य सरकारें अपने 5 साल के कार्यकाल से पहले ही गिरने लगीं और...

डेहरी के मतदाताओं के नाम खुला पत्र।

साथियों , २०२० के चुनाव में आपने राजद पार्टी के उम्मीदवार फतेह बहादुर कुशवाहा को आशीर्वाद दिया और वो लोकतंत्र के मंदिर में विधायक के रूप में अपना योगदान दे रहे हैं। जिस प्रकार देश की संसद भारतीय लोकतंत्र का मंदिर है , बिहार विधानसभा भी बिहार के सभी निवासियों के लिए पवित्र मंदिर है और हो भी क्यूँ न , लोकतंत्र की जननी भी तो बिहार की गौरवशाली धरती ही हैं जहां लिच्छवि और वैशाली गणतंत्र मानव सभ्यता को लोकतांत्रिक व्यवस्था का सफल संचालन कर के विश्व के राजतंत्र व्यवस्था के सामने आदर्श प्रस्तुत कर रहे थे। अब मंदिर की गरिमा होती है और लोकतांत्रिक मंदिर की गरिमा को बनाये रखने की ज़िम्मेदारी सबसे पहले तो वहाँ निर्वाचित सदस्यों पर होती है। अगर सदस्य इस कर्तव्य का निर्वहन करने में असफल रहते हैं तो फिर ये ज़िम्मेदारी समाज को अपने हाथों में लेनी होती है।   आज ये पत्र लिखने का आशय ये हैं कि आपके विधायक ने सनातन संस्कृति , सभ्यता व हिंदू धर्म में...

Government Reforms Health Sector

Abhishek Kumar The full potential of a nation can only be  realized  if its citizens are strong and healthy. However, in a country where about 276 million people are living below the poverty line, ensuring adequate healthcare access across various sectors is indeed a tough job. A number of government sponsored schemes have been introduced in the past, but most of them were ridden with numerous flaws. This posed consistent and significant challenges. It was primarily in order to counter these difficulties and provide an efficient healthcare system that the  Ayushman  Bharat health insurance scheme and a  bill on National Medical Council  was recently launched. Ayushman  Bharat - National Health Protection Mission  will have major impact on reduction of Out of Pocket (OOP) expenditure on ground of: •  Increased benefit cover to nearly 40% of the population (the poorest & the vulnerable) •  Covering almost all s...