कुणाल भारती
राजनीतिक एवम सामाजिक विश्लेषक
प्रकृति का विनाश कोई नई बात नहीं है, मानव अपने लोभ में इतना अंधा हो चुका है कि उसे भले बुरे का ज्ञान भी नहीं रहा । इंसान ने बहुत पहले ही प्राकृतिक परस्थतकी और जैव विविधता का हनन करना शुरू कर दिया था। जिसका अभी सबसे बड़ा उदाहरण है जोशीमठ जिसकी स्थापना 8वीं सदी में धर्मसुधारक आदि शंकराचार्य के द्वारा ज्ञान के उपरांत प्रथम मठ की स्थापना की गई थी जो इन दिनों त्रासदी के लिए पूरे विश्व में चर्चित है, लगभग 600 घरों में दरार आ गई है तथा भूस्खलन के बाद जमीन के अंदर से पानी भी सीज रही है। जोशीमठ हिमालय के कोख में बसा वह क्षेत्र है जो सनातन धर्म के पौराणिक कथाओं में प्रसिद्ध है। राज्य के अन्य महत्त्वपूर्ण धार्मिक और पर्यटन स्थलों के अलावा यह शहर बद्रीनाथ, औली, फूलों की घाटी (Valley of Flowers) एवं हेमकुंड साहिब की यात्रा करने वाले पर्यटकों के लिये रात्रि विश्राम स्थल के रूप में भी जाना जाता है। जोशीमठ, जो सेना की सबसे महत्त्वपूर्ण छावनियों में से एक है, भारतीय सशस्त्र बलों के लिये अत्यधिक सामरिक महत्त्व रखता है। शहर (उच्च जोखिम वाला भूकंपीय क्षेत्र-V) के माध्यम से धौलीगंगा और अलकनंदा नदियों के संगम, विष्णुप्रयाग से एक उच्च ढाल के साथ बहती हुई धारा आती है।
हिमालय का क्षेत्र एक युवा पहाड़ी क्षेत्र है जिसका निर्माण प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत की वजह से हुआ, आज से लगभग 65 मिलियन वर्ष पूर्व भारतीय और एशियाई प्लेटों के निकट आने के कारण संघात उत्पन्न हुआ था। इसके फलस्वरूप हिमालय पर्वत की उत्पत्ति हुई थी। इसके उत्थान का प्रथम चरण वर्तमान से लगभग 65 मिलियन वर्ष पहले प्रारंभ हुआ था। भारतीय प्लेट पर यूरेशियन प्लेट के लगातार दबाव के कारण इसके नीचे जमा होने वाली ऊर्जा समय-समय पर भूकंप के रूप में बाहर निकलती रहती है हिमालय के नीचे ऊर्जा के संचय के कारण भूकंप आना एक सामान्य और निरंतर प्रक्रिया है, लेकिन कभी भी एक बड़े भूकंप तथा भूस्खलन की प्रबल आशंका हमेशा बनी हुई है।
यह पूरा क्षेत्र भूकंप के दृष्टिकोण से सीस्मिक जोन पांच में रखा गया है जो कि सबसे ज्यादा प्राकृतिक आपदा के लिए अनुकूल है। पहली बार वर्ष 2021 में जोशीमठ में दीवारों और इमारतों में दरार पड़ने की बात दर्ज की गई, जबकि उत्तराखंड के चमोली ज़िले में भूस्खलन एवं बाढ़ की घटनाएँ निरंतर रूप से देखी जा रही थीं। और वर्तमान में महत्वपूर्ण विषय यह है कि आपदा प्राकृतिक है या फिर मानव के द्वारा रचित क्योंकि उत्तराखंड सरकार के विशेषज्ञ पैनल ने वर्ष 2022 में पाया कि जोशीमठ के कई हिस्सों में मानव निर्मित और प्राकृतिक कारकों के कारण इस प्रकार की समस्या उत्पन्न हो रही है , व्यावहारिक रूप से शहर के सभी ज़िलों में संरचनात्मक खामियाँ हैं और अंतर्निहित सामग्री के नुकसान या गतिविधियों के परिणामस्वरूप पृथ्वी की सतह के धीरे-धीरे या अचानक धँसने अथवा विलय हो जाने जैसे परिणाम देखने को मिलते रहने की संभावना है। वर्ष 1976 की मिश्रा समिति की रिपोर्ट के अनुसार, जोशीमठ मुख्य चट्टान पर नहीं बल्कि रेत और पत्थर के जमाव पर स्थित है। यह एक प्राचीन भूस्खलन क्षेत्र पर स्थित है। रिपोर्ट में कहा गया है कि अलकनंदा एवं धौलीगंगा की नदी धाराओं द्वारा कटाव भी भूस्खलन के कारकों के अंतर्गत आते हैं। समिति ने भारी निर्माण कार्य, ब्लास्टिंग या सड़क की मरम्मत के लिये बोल्डर हटाने और अन्य निर्माण, पेड़ों की कटाई पर प्रतिबंध लगाने की सिफारिश की थी परंतु ऐसा एकदम नहीं हुआ निर्माण कार्य निरंतर चलता रहा , वर्ष 2006 में यहां एनटीपीसी बनाने की परियोजना का आरंभ हुआ , दिसंबर 2009 में निर्माण के दौरान टनल बोरिंग मशीन 900 मीटर की गहराई में फंस गया था और इसके कारण हाई प्रेशर बना था और पानी सतह पर आ गया था। इसके बाद शहर में पेयजल की समस्या आई थी। जहां निर्माण कार्य की पाबंदी थी उसके विपरीत यहां पर्यटकों को लुभाने की कोशिश में पर्यटकों के भोग के अनुकूल यहां निर्माण कार्य किए गए जिससे इस पूरे क्षेत्र का सांस्कृतिक एवं भौगोलिक हनन हुआ । यह क्षेत्र जो सनातन धर्म के लिए सबसे बड़े तीर्थ स्थलों में से एक है वहां पर्यटक मौज मस्ती के लिए आना शुरू कर दिए , बड़े होटलों का निर्माण होने लगा पर ज्ञात हो कि इस पूरे इलाके में ड्रेनेज व्यवस्था सबसे बड़ी समस्या है ।क्षेत्र में बिखरी हुई चट्टानें पुराने भूस्खलन के मलबे जिसमें बाउलडर, नीस चट्टानें और ढीली मृदा शामिल है, से ढकी हुई हैं, जिनकी धारण क्षमता न्यून है। निर्माण कार्य में वृद्धि, पनबिजली परियोजनाओं और राष्ट्रीय राजमार्ग के चौड़ीकरण ने पिछले कुछ दशकों में ढलानों को अत्यधिक अस्थिर बना दिया है।
महत्वपूर्ण सवाल यह है कि सब कुछ जानते हुए भी प्रकृति के साथ लगातार खिलवाड़ किया जा रहा है , क्या यह सच नहीं है कि विकास की अंधा भूख ने हमें विनाश के सामने खड़ा कर दिया । निसंदेह विकास मानवता की सबसे बड़ी खोज है, पर विकास के नाम पर प्रकृति के साथ छेड़छाड़ हमें अंधकार के उस मोड़ पर पहुंचा रही है जहां से लौट पाना लगभग असंभव है । ‘विकास’ बनाम ‘विनाश’लंबे समय से चले आने वाली एक ऐसी संवेदनशील विषय है,जिसके बहस में उलझना वर्तमान के संदर्भ में उचित नहीं है परंतु सांस्कृतिक तथा प्राकृतिक रूप से महत्वपूर्ण भौगोलिक क्षेत्रों को संरक्षण प्रदान करना सबसे महत्वपूर्ण विषय है क्योंकि यह बात सिर्फ जोशीमठ तक सीमित नहीं रह गई है , शिवालिक हिमालय क्षेत्र के लगभग सभी बसावट वाले इलाकों का कमोबेश यही हाल है चाहे वह रुद्रप्रयाग हो या फिर टिहरी। सभी संवेदनशील इलाके हैं जहां मानवता अपने लालच की वजह से लगातार प्रकृति के पीठ में छुराबाजी कर रही है। अगर हम अभी भी सचेत ना हुए तो यह तो सिर्फ शुरुआत है आगे लंबी कहानी है, वैसे भी जलवायु परिवर्तन हमारे लिए पहले से ही एक बड़ी चुनौती बनी हुई है तथा विकसित राष्ट्रों का लालच और विकासशील देशों के बीच अत्यधिक विकसित होने का भूख पहले से ही पैरिस जलवायु परिवर्तन समझौता को ठंडे बस्ते में डाल चुके हैं जिससे शायद थोड़ा डैमेज कंट्रोल किया जा सकता था। परंतु आर्थिक विकास तथा पर्यावरण संरक्षण एक सिक्के के दो पहलू नहीं हो सकता , यह पूरी तरह से दो अलग विषय है । पर्यावरण संवेदी क्षेत्र में प्रकृति के साथ खिलवाड़ आने वाली पीढ़ियों के साथ खिलवाड़ माना जा सकता है , स्पष्ट तौर पर वर्तमान के साथ भविष्य की भी बर्बादी के जिम्मेदार हम स्वयं होंगे।
Bahut khub ...achhi soch achhe vicharo ko janam deti hai ...aur ye topic bahut jyada khas hai kyuki ham ishi prakriti ke andar aate hai .... keep it up Kunal .
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