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क्या जाति की जकड़न से मुक्त होगा बिहार चुनाव

कुणाल भारती
राजनीतक विश्लेषक
इतिहास इस बात की गवाह है कि बिहार लोकतंत्र की जननी है। स्वतंत्रता संग्राम या फिर उसके बाद यानी कि पिछले 7 दशकों में बिहार राजनीति का केंद्र रहा है एवं देश के राजनीतिक बदलाव में अहम भूमिका निभाता रहा है। इस देश में आजादी के बाद जो दो बड़ी आंदोलन हुई उसकी शुरुआत बिहार की धरती से ही हुई चाहे वह 1975 का जेपी आंदोलन हो या 90 के दशक का मंडल आंदोलन। 1975 में जे.पी के नेतृत्व में छात्र आंदोलन की शुरुआत हुई और उस आंदोलन ने तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार को चुनौती दी तथा बाद में वह आंदोलन आपातकाल विरोधी आंदोलन में तब्दील हो गई। जबकि 1990 के दशक में बिहार मंडल समर्थक और मंडल विरोधी आंदोलन के केंद्र में था। आजादी के पूर्व महात्मा गांधी ने भारत में 1917 में अपनी राजनीतिक सफर की शुरुआत अंग्रेजो के खिलाफ बिहार के चंपारण से की थी जब उन्होंने किसान हित की बात करते हुए अंग्रेजों द्वारा जबरदस्ती थोपी गई तीन कठिया व्यवस्था का विरोध किया। 

मंडल-दौर के बाद देश के उत्तरी राज्यों में जिस तरह की राजनीतिक लड़ाई और राजनीतिक प्रतिनिधित्व की शुरुआत हुई उसकी गहरी जड़ें बिहार में ही थीं। देश के अन्य राज्यों की तरह ही, अतीत में बिहार की राजनीति में मुख्यतः काँग्रेस का दबदबा रहा है जो 1990 तक जारी रहा। इस बीच सिर्फ पांच बार जब राज्य में कुछ समय के लिए गैर-काँग्रेसी शासन रहा। पर मंडल-आंदोलन के बाद की स्थिति ने राज्य की राजनीति की दिशा और दशा बदल दी और चुनावी राजनीति और राजनीतिक प्रतिनिधित्व अब पहले जैसे नहीं रहे। इस दौर में क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियों का उदय हुआ और व्यापक जनाधार वाले क्षेत्रीय नेता भी सामने आए। मंडलोत्तर राजनीति ने राज्य में काँग्रेस के अवसान की शुरुआत कर दी और काँग्रेस का जनाधार चुनाव दर चुनाव निरंतर गिरता गया। आज 135 साल से ज्यादा पुरानी इस पार्टी का राज्य में राजनीतिक वजूद नगण्य हो गया है।

मंडलोत्तर राजनीति के तीन दशक की इस अवधि के दौरान बिहार की राजनीति में कई तरह के उतार-चढ़ाव आए हैं। किसी भी राज्य की राजनीति उसके समाज और उसकी अर्थव्यवस्था के बीच के संबंधों की देन होती है। बिहार के सामाजिक और आर्थिक इतिहास की समझ पिछले कई दशकों में इसकी चुनावी राजनीति की बदलती प्रकृति को समझने में मदद करेगी। तिरहुत, मिथिला, मगध, भोजपुर और सीमांचल यह ऐसी पांच क्षेत्र है जिसमें सांस्कृतिक और भौगोलिक रूप से बिहार का बटवारा की गई है। यद्यपि यह वर्गीकरण मूलतः सांस्कृतिक है, इनका प्रयोग राजनीतिक अनुस्थापनों के अध्ययन के लिए भी होता है। हर क्षेत्र अपनी विशिष्ट सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों के अनूठे सम्मिश्रण को प्रदर्शित करता है और इनकी भाषाऔर बातचीत का लहजा एक-दूसरे से अलग है। राज्य की राजनीति में जाति एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। किसी जमाने में ऊंची जातियों की वर्चस्व वाली राजनीतिक संरचना के लिए जाने वाले बिहार में मंडलोत्तर राजनीति ने प्रभावशाली मध्य जातियों जैसे आम तौर पर ओबीसी और विशेषकर यादवों को बिहार की राजनीति के केंद्र में ला दिया। बिहार के मतदाताओं में यादवों और मुसलमानों की संख्या काफी अधिक है। आजादी के बाद के बिहार के राजनीतिक इतिहास पर नजर दौड़ाने से इसके तीन भिन्न चरणों का पता चलता है। इसका पहला चरण (1947-1967) काँग्रेस के वर्चस्व का काल है जब ऊंची जातियाँ इसकी सत्ता-संरचना के शीर्ष पर बैठी दिखती हैं। दूसरा चरण (1967-1990) को संक्रमण काल कहा जा सकता है जब राजनीतिक क्षेत्र में काँग्रेस के साथ-साथ ऊंची जातियों के प्रभुत्व में आ रही क्रमशः गिरावट और इसके साथ ही मध्य जातियों के धीमे किन्तु निरंतर उभरते प्रभाव को देखा जा सकता है। तीसरा चरण (1990 और उसके बाद) प्रथम चरण का पूर्ण विपर्यय है जिसमें काँग्रेस पार्टी और ऊंची जातियाँ राज्य की राजनीति में हाशिये पर चली जाती हैं।

बिहार के समीकरणों को समझना थोड़ा मुश्किल होता हैं क्यूँकि बिहार के चुनाव में वोटिंग पैटर्न पूरे देश के मुताबिक थोड़ा अलग रहता है। बिहार में राष्ट्रवाद की भावना यहां के लोगों में भरपूर होती है परंतु प्रदेश में उप-राष्ट्रवाद की भावना लोग अपने अंदर पैदा करने में सक्षम नहीं दिखाई दिए हैं। जिसके कारण क्षेत्रवाद की राजनीति बिहार में आज तक नहीं हुई। वही बिहार सदियों से कई धर्मों की जननी रही है , सदियों से विभिन्न धर्मों के लोग यहां भाईचारा का उदाहरण प्रस्तुत किए हैं जिसकी वजह से बिहार में आज तक संप्रदायिक राजनीति नहीं हो सकी, परंतु बिहार के जड़ों में जातीय व्यवस्था अपने स्थान बना ली है। जातीय राजनीति से बिहार को अलग कर पाना वर्तमान के समय में तो असंभव सा दिखाई देता है। कोई भी व्यक्ति वोट के जरिये राजनीति में अपने मत को जाहिर करता है। लेकिन वह वोट किसे देगा, यह बहुत सारे पहलुओं पर निर्भर करता है। इसमें सबसे प्रभावी पहलू है व्यक्ति की सामाजिक पृष्ठभूमि, व्यक्ति की सामाजिक पृष्ठभूमि ही व्यक्ति के राजनीतिक झुकाव को तय करती है । इसी आधार पर किसी दल के लिए राजनीतिक जनाधार का निर्माण होता है। जाति की पहचान जिस तरह भारत के दूसरे राज्यों की राजनीति को प्रभावित करती है, उससे कहीं ज्यादा बिहार की राजनीति को प्रभावित करती है।
राजनीतिक दल बिहार में अपना सियासी आधार तैयार करने के लिए जाति का पुरजोर तरीके से इस्तेमाल करते हैं , बिहार की राजनीति में जाति की इतनी मजबूत भूमिका है कि इसी के आधार पर तय होता है कि टिकट किसे दिया जाए। यहाँ तक कि चुनाव के बाद मंत्रालयों के बंटवारे में भी जाति की भूमिका देखी जाती है। देश की तरह बिहार की ऊँची जातियों में ब्राह्मण, भूमिहार, कायस्थ और राजपूत जैसी जातियां शामिल हैं। पिछड़ी जाति यादव, कोइरी और कुर्मी जैसी जातियां शामिल हैं।निम्न पिछड़े वर्ग में कुम्हार, तांती, धानुक और तेली जैसी जातियां आती हैं। अनुसूचित जाति में रविदास ,पासवान और मुसहर जैसी जातियां शामिल हैं।

बिहार की राजनीति समझने के लिए जाति को दो कालखंडों में बाँटा जा सकता है। पहला दौर है आज़ादी से लेकर साल 1990 का दौर। दूसरा दौर है साल 1990 के बाद का दौर यानी मंडल का दौर। आज़ादी के बाद के दौर में बिहारी में ऊँची जातियों की ही तूती बोलती थी। हिन्दुओं में ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार और कायस्थ का सितारा चमक रहा था तो मुस्लिमों में सैयद, शेख और पठान सबसे आगे थे। बिहार में हिंदू समुदाय में ऊंची जातियों का हिस्सेदारी महज 15-16% है। साल 1990 के बाद की राजनीति में यादवों का दौर आया। बिहार की कुल आबादी में तकरीबन 14 फीसदी आबादी यादव जाति की है। यह बिहार के समाज का सबसे बड़ा समूह है। कोइरी और कुर्मी जैसी पिछड़ी जातियों को बिहार में लव-कुश समाज के तौर पर पुकारा जाता है ,बिहार की कुल आबादी में यह जातियां 11 फीसदी की हिस्सेदारी रखती हैं। इनका दबदबा वैसा नहीं है जैसा यादवों का है, लेकिन यादव और लव कुश समाज ने मिलकर साल 1990 के बाद की पिछड़ी जातियों की राजनीति में जान फूंकी है। यादव और लव-कुश समाज से जुड़ी जातियां साल 1990 से पहले खेती-किसानी में लगी हुई जातियां थी। लेकिन अब ये जातियां खेती किसानी से बाहर निकलकर सेवा क्षेत्र में भी आयी हैं। शहरों में काम करने आती है। प्राइवेट और असंगठित क्षेत्र में इनकी मौजूदगी है साथ ही नौकरशाही, न्यायपालिका और सरकारों के बड़े पदों पर यह जातियां अब विराजमान है। निसंदेह विगत 3 दशकों में इन जातियों में सामाजिक एवं आर्थिक रूप से बड़ा बदलाव देखा गया है।

बिहार की कुल आबादी में अनुसूचित जातियों से जुड़े लोगों की आबादी तकरीबन 16 फीसदी है तथा यह समाज का सबसे वंचित तबका है। अनुसूचित जाति की तकरीबन 93 फीसदी आबादी गांवों में रहती है। 23 जातियों को बिहार की अनुसूचित जातियों की कैटगरी में रखा गया है। इसमें रविदास (चमार) जाति की हिस्सेदारी तकरीबन 31 फीसदी है। अनुसूचित जातियों का दूसरा बड़ा समूह पासवान लोगों का है जो राजनीतिक रूप से बिहार में काफी सशक्त है और बिहार की राजनीति में इनका राजनीतिक प्रतिनिधित्व रामविलास पासवान पिछले 5 दशकों से कर रहे हैं।

मुस्लिम आबादी पूरे राज्य की आबादी की तकरीबन 16.87 फीसदी है। कटिहार, दरभंगा, पूर्णिया, सीवान, किशनगंज, अररिया और कुछ अन्य जिलों में मुसलमानों की अच्छी ख़ासी उपस्थिति का परिणाम यह निकला है कि राजनीतिक पार्टियां मुसलमानों को वोट बैंक की तरह देखने को मजबूर हुई हैं। क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियां एवं कांग्रेस मुस्लिमों को वोट बैंक समझकर ही लामबंदी करती हैं। साल 1990 के बाद अगर मंडल की राजनीति का उभार हुआ तो बिहार के अलावा पूरे देश में कमण्डल की राजनीति का उभार हुआ। यानी साल 1990 की राजनीति भाजपा के आगे बढ़ने की राजनीति है, हिन्दू - मुस्लिम अलगाव की राजनीति है , लेकिन पुराने व्यवस्थाओं को ध्वस्त करते हुए भाजपा 2014 के बाद निरंतर “सबका साथ , सबका विकास और सबका विश्वास “ नारे के साथ हिंदू-मुस्लिम अलगाव को कम करने में सफलता पाई है।

1990 से साल 2005 तक बिहार में लालू - राबड़ी सरकार रही। 2005 चुनाव कि पहले ही ऐसा महसूस हो रहा था की जनता बदलाव चाहती है। लालू- राबड़ी शासन का एंटी इनकंबेंसी फैक्टर जोड़ों पर था। सरकार पिछले 15 सालों में बिहार में अगड़ा बनाम पिछड़ा का माहौल बना दिया था, साथ ही राजद की सरकार सामाजिक न्याय देने में असमर्थ रही थी। 2005 में जब भाजपा जदयू गठबंधन पहली बार सत्ता में आई तो प्रदेश में विकास की गाड़ी दौड़ पड़ी और शायद यही कारण था कि वर्ष 2010 के चुनाव में एनडीए को प्रचंड बहुमत मिला। पर कुछ राजनैतिक कारणों की वजह से यह विकास की गाड़ी 2013 में रुक गई जब भाजपा - जदयू गठबंधन टूट गया।

2014 लोकसभा चुनाव में पूरे देश में मोदी लहर थी और बिहार में भी उसका प्रभाव साफ देखने को मिला। बिहार की तीन बड़ी पार्टियां यानी कि जदयू भाजपा और राजद अलग-अलग चुनावी मैदान में उतरे। भाजपा अपने सहयोगी दलों के साथ बिहार के 40 में से 31 सीटों पर जीत हासिल की तथा 2014 के लोकसभा चुनावों के परिणाम के बारे में यह कहा गया कि यह जातिवादी गठबंधनों पर विकास की राजनीति की जीत है। परंतु भाजपा की यह विजय रथ को बिहार में तब लगाम लगा जब समाजवाद के धरे से निकली बिहार की दो बड़ी पार्टियां राजद और जदयू गठबंधन करके भाजपा के खिलाफ लड़ी। 2015 बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा की भीषण पराजय हुई। एक बार पुण: चुनाव को विकास बनाम जाती बनाने की कोशिश की गई जिसमें लालू नीतीश की जोड़ी ने बिहार में जातीय सोशल इंजीनियरिंग के बदौलत प्रचंड बहुमत हासिल किया। हालांकि या गठबंधन 2 साल से भी कम के अंतराल पर टूट गया और जदयू भाजपा पुनः एक साथ आ गए। 2019 लोकसभा चुनाव में पुण: मोदी लहर लोगों के सर चढ़कर बोल रहा था। जहां पूरे देश में एनडीए को 350 से भी अधिक सीटें मिली वहीं बिहार में भाजपा- जदयू -लोजपा गठबंधन को 40 में से 39 सीटें हासिल हुई। विकास मॉडल फिर से जातीय उन्माद पर भारी पड़ा।

2020 पुनः चुनावी वर्ष है। देश भर में कोरोना वायरस (COVID-19) महामारी के आँकड़े तेज़ी से बढ़ते जा रहे हैं, ऐसे में लगातार बढ़ती महामारी के बीच बिहार में चुनाव आयोजित करने को लेकर राजनीतिक दलों की चिंता बढ़ रही है। बिहार में कई राजनीतिक दल COVID-19 महामारी के प्रकोप की समाप्ति तक राज्य चुनाव स्थगित करने की मांग कर रहे हैं। गौरतलब है कि इस संबंध में मुख्यतः दो निर्णय लिये जा सकते हैं, पहला यह कि राज्य में मौजूदा सदन की समाप्ति पर राष्ट्रपति शासन लागू किया जा सकता है और दूसरा विकल्प यह है कि राष्ट्रपति राज्य के मौजूदा मुख्यमंत्री को विघटन के बाद भी कुछ समय तक कार्य जारी रखने की अनुमति दे सकते हैं। राम मंदिर शिलान्यास के बाद बिहार में विधानसभा का चुनाव है जिसके लिए बीजेपी जी तोड़ मेहनत कर रही है। ऐसे में बिहार बीजेपी (BJP) एक खास प्लान पर काम कर रही है , कहा जा रहा है कि वह अब राम का संदेश लेकर घर-घर पहुंचेगी। वर्चुअल और डिजिटल माध्यम से हो रहे सम्मेलनों में बीजेपी के नेता राम मंदिर और राफेल की चर्चा कर रहे हैं और अपने कार्यकर्ताओं से कह रहे हैं कि आम लोगों तक यह संदेश पहुंचाएं। गौरतलब है कि 30 सालों से लगातार बीजेपी राम के नाम पर राजनीति करती आ रही है।लोकसभा का चुनाव हो या फिर विधानसभा का, उनके एजेंडे में राम मंदिर का निर्माण रहता ही था। ऐसे में अब जब राम मंदिर की नींव पड़ चुकी है और निर्माण का कार्य शुरू हो चुका है तो बीजेपी इसे भुनाने में पीछे नहीं हटेगी जिसका उसे प्रत्यक्ष रुप से लाभ भी मिलेगा।

बिहार के विधानसभा चुनाव में एक बात तय है कि लालू प्रसाद यादव चाहे ज़मीन पर हों या जेल में, वे और उनका परिवार इसबार भी चुनाव के केंद्र में होगा। इसके अलावा चुनाव ‘नीतीश लाओ या नीतीश हटाओ’ पर भी केंद्रित होगा। लेकिन राजनीति की प्रयोगशाला के रूप में बार-बार इस्तेमाल होने वाले बिहार के चुनावी समर में कई तरह के खुलासे होने बाक़ी हैं। राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) में जान फूंकने की पूरी कोशिश तेजस्वी भी कर रहे हैं और किसी भी ओर जाकर राजनीतिक दावं-पेच में मुख्य भूमिका निभाने की कोशिश में पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी भी हैं।

2014 के आम चुनाव में जेडीयू ने स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ा था और उस समय 15.80 फीसदी वोट मिले थे। यदि इन वोटों को जेडीयू का मूल वोट मानकर चलें तो उसके वोट राजद के साथ आने पर सबसे ज्यादा बढ़े हुए नजर आते हैं। उधर बीजेपी के वोट जेडीयू से अलग लड़ने पर बढ़ जा रहे हैं। इसकी वजह समझने की कुंजी शायद 15 साल पहले के बिहार की राजनीति में छिपी हुई है। नब्बे के दशक में जब बिहार में पिछड़े वर्ग के सशक्तिकरण की राजनीति का बोलबाला था, बड़े पैमाने परजातीय हिंसा की घटनाएं हुईं। दलित-पिछड़ा और अगड़ी जातियों के बीच हिंसक संघर्ष का दौर था। इस दौर में राजनीतिक रूप से जो जहां खड़ा था, आज भी उसका असर दिखाई देता है। लेकिन क्या अनुच्छेद 370 हटाने, सीएए और राम मंदिर के बाद भी बीजेपी क्या जदयू को उतना ही तवज्जो देती रहेगी। इस सवाल का जवाब बिहार की जातीय जकड़न में तलाशने की जरूरत है। हालांकि बिहार में 2010 के चुनाव से हर बार बिहार के जातीय जकड़न से मुक्त होने की घोषणा होती रही है, लेकिन जब भी यह नैरेटिव भरोसा हासिल करता दिखा है, कुछ न कुछ ऐसा हो गया कि लौट के बुद्धू घर को आए की कहावत चरितार्थ हो जाती है। परंतु इस बार स्थितियां बदली हुई हैं, पिछले 15 सालों में इस बार नीतीश सबसे कम मजबूत नजर आ रहे हैं ,पहली बार विपक्ष पूरी तरह दिशाहीन दिख रही तथा वर्तमान में अगर कोई सबसे शक्तिशाली एवं सबसे अधिक जनाधार वाली पार्टी कोई दिखाई दे रही है तो वह भाजपा है और उम्मीद भी यह है कि भाजपा के इर्द-गिर्द ही इस चुनाव की कथा लिखी जाएगी। 

राजनीति के जानकारों का कहना है कि "अनुमान के मुताबिक पिछले कुछ दिनों में करीब 28 लाख श्रमिकों को बिहार लौटना हुआ है। गौरतलब है कि प्रवासियों की इतनी बड़ी तादाद राज्य के तकरीबन हरेक विधानसभा क्षेत्र में चुनावी गणित को गड़बड़ा सकती है। यह एक बड़ा वोट बैंक है ,जातीय समीकरण के हिसाब से भी इनमें पिछड़े, अतिपिछड़े, दलितों व महादलितों की संख्या ज्यादा है। इसलिए इनकी चिंता तो करनी ही होगी चाहे वह सत्तारूढ़ पक्ष हो या फिर विपक्ष। दावे-प्रतिदावे चाहे जो भी हों लेकिन इतना तो साफ है कि लाखों वोटरों की एक नई फौज इस बार बिहार के चुनाव मैदान में होगी। ये वे लोग हैं जो देश के अन्य हिस्सों में रहते थे और मतदान में हिस्सा नहीं ले पाते थे। इस बार अब वे अपने गांव-घर में हैं तो अपना वोट डालने की हरसंभव कोशिश करेंगे, यह तबका बहुत सोच-विचार कर नहीं बल्कि तात्कालिक परिस्थितियों पर प्रतिक्रिया देता है बशर्ते कि कोई जातिगत शर्त न हो। 

चुनाव के इस माहौल यह कहना गलत नहीं होगा की बिहार में जातिगत राजनीति अब भी हावी है और वोट व जीत का असली आधार यही है। बिहार के संदर्भ में सभी क्षेत्रीय राजनीतिक दल अपने राजनीतिक हितों को पोषित करने के लिए जातिगत खेमोंपर ही आश्रित दिखता है। ऐसे में समाज का सबसे अहम वर्ग यानी आम जनता सुविधाओं से वंचित नजर आता है। असल में 1990 के बाद बिहार के अलावा दूसरे राज्यों में भी जहां भी क्षेत्रीय दलों का उदय हुआ है और वहां पार्टियां अगर सत्ता में आई है तो उसका मूल कारण जातीय सोशल इंजीनियरिंग था, चुनाव में जातीय समीकरण को ही सबसे बड़े कार्ड के रूप में यह क्षेत्रीय पार्टियां इस्तेमाल करती हैं चाहे बिहार में राजद हो, उत्तर प्रदेश में सपा या बसपा, हरियाणा में इंडियन नेशनल  लोकदल तथा इत्यादि। जाति आधारित राजनीति का उद्देश्य सत्ता में बने रहने और अपना राजनैतिक अस्तित्व बरकार रखने तक ही सीमित है जिसका विकास और जन-कल्याण से कोई सरोकार नहीं है। लेकिन बिहार के राजनीतिक तबके को आज भी अपने हितों की पूर्ति हेतू एक ही कारगर उपाय दिखता है ‘जाति आधारित राजनीति'। जातिगत समीकरणों का उन्मूलन आज समय की मांग है और इस सिद्धांत व नीति को सामाजिक-राजनीतिक जीवन में लागू किए बिना राजनीतिक शुचिता की बातें करना केवल और केवल ‘ढपोरशंख‘ है। इसके कुप्रभाव से मुक्ति के लिए ईमानदार और सार्थक अभियान चलाने की ज़रूरत है ताकि एक आम मतदाता अपने मतों का महत्व समझ सके और जाति के नाम पर इसकी बिक्री से परहेज करे। चुनावों को जातिके प्रभाव से मुक्त कराना ही सर्व हितकारी, स्वच्छ और आदर्श लोकतान्त्रिक व्यवस्था की स्थापना की पहली शर्त है । 

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