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शपथ ग्रहण के साथ ही बिहार की राजनीत में रोचक मोड़

शिशु रंजन, आर्थिक, राजनितिक और सामाजिक विश्लेषक
राजनीती संभावनाओं का दूसरा नाम है। इसीलिए राजनीति में न कोई अमर है और न ही कोई मृतप्राय। हर कुशल राजनीतिज्ञ बस सम्भावनाओ की तलाश में रहता है जो उसे फर्श से अर्श पे बिठा दे। २०१९ आम सभा चुनाव में मिले प्रचंड बहुमत के बाद 23 मई को श्री नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री पद के लिए दूसरी बार शपथ ली। २३ मई को परिणाम आने के बाद ही मंत्रिमंडल के सदस्यों के नाम पर देश भर में चर्चा का बाजार गरम था। मंत्रिपद के सम्भावनाओ की खोज में हर इच्छाधारी नेता हाथ-पैर पुरजोर तरीके से मार रहा था। परन्तु, प्रधानमंत्री मोदी भी आखिरी समय तक किसी भी भावी मंत्री का नाम पत्रकारों तक नहीं पहुंचने दिए। प्रधानमंत्री के शपथ के साथ ही ५७ मंत्रियों ने भी शपथ ली। परन्तु, इस मंत्रिमंडल से भाजपा के दूसरे सबसे बड़े सहयोगी दल जदयू नदारद था। जदयू का मंत्रिमंडल में नहीं शामिल होना बिहार के राजनीति में एक रोचक मोड़ ले कर आया है, जिसकी आहट भले ही आज सुनाई दे पर इसका असर अगले वर्ष बिहार विधानसभा चुनावो पर दिख सकता है।


२०१९ लोकसभा के लिए अन्य हिंदी भाषी राज्यों की तरह बिहार ने भी राजग को प्रचंड जनादेश दिया है। बिहार की ४० सीटों में से राजग ३९ सीट जीतने में सफल रहा। इन ३९ सीटों में से १७ भाजपा, १६ जदयू, और ६ लोजपा के पास है। हालाँकि २०१४ में जदयू जब अपने दम पर चुनाव मैदान में थी, तो मात्र दो सीट जीतने में सफल रही थी। ऐसे में २ सीट से १६ सीट का सफर मोदी की लोकप्रियता के सहारे ही तय की गयी है। चुनाव परिणाम आते ही जदयू को ३ मंत्रिपद की मांग रखना, जिसमे से २ कैबिनेट और एक राज्य मंत्री हो, भाजपा नेतृत्व को जरूर परेशान किया होगा। इसी बीच शिवसेना और शिरोमणि अकाली दल जैसे बड़े और पुराने सहयोगियों का १-१ कैबिनेट मंत्रिपद से संतुष्ट हो जाना जदयू के मांग को ख़ारिज करने के लिए बाध्य करने जैसा था।

अपनी मांग को ख़ारिज होता देख जदयू ने अपने आप को मंत्रिमंडल से बाहर रखने का फैसला किया है। हालाँकि, जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष और बिहार के मुख्यमंत्री श्री नितीश कुमार ने स्पष्ट शब्दों में कहा है की राजग में वो बिना किसी मनमुटाव के बने रहेंगे। परन्तु, नितीश कुमार को नजदीक से जानने वाले और उनकी राजनीत से भली-भाँती परिचित लोग यह बात अच्छी तरह समझते है की नितीश कुमार ने अपनी संभावनाओं को जीवित रखने के लिए ही अपने आपको मंत्रिमंडल से अलग रखा है। जैसा की बिहार के राजनीति के दूसरे ध्रुव श्री लालू यादव ने अपनी आत्मकथा में उल्लेख किया है की नितीश कुमार महागठबंधन में वापसी की सम्भावनाये लोकसभा सीट के बटवारे के पहले भी तलाश रहे थे। हालाँकि, यह उनका भाजपा पर सीट बटवारें को लेकर दबाव बनाने का भी मसला हो सकता था, जो बखूबी अपना काम कर गया।

नितीश कुमार अच्छी तरह समझते है की अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में उनकी राह इस बार इतनी भी आसान नहीं होने वाली। जहाँ नितीश कुमार की विश्वसनीयता सत्तालोलुपता को लेकर प्रश्नचिन्ह के कटघरे में है, वहीं भाजपा की लोकप्रियता भी चरम पर है। ऐसे में भाजपा का डर न सिर्फ बिहार की विपक्षी पार्टियों को है, बल्कि नितीश कुमार को भी हो चूका होगा। इस बदली परिस्थिति में एक बार फिर महागठबंधन नितीश में अपनी सम्भावनाये तलाशेगा। बिहार के महागठबंधन को नितीश कुमार संजीवनी जैसे दिख रहे होंगे। भाजपा भी उस संभावनाओं में नजर रखेगी जिसमे फिर से सब एकजुट हो जाएँ क्यूंकि उस स्तिथि में शायद जातीय गणित एक बार फिर राजग पर भरी न पड़ जाये। जहाँ नितीश कुमार ने राजनीती के शतरंज की बिसात पर पहली चाल चल दी है, भाजपा ने भी बिना दबाव में आये अपना मंत्रिमंडल बना लिया है जिसमे जुड़ने की सम्भावना अत्यंत क्षीण है।नितीश कुमार ने भी अपने मंत्रिमंडल का विस्तार कर करारा जवाब देने का काम किया है| मृतप्राय कांग्रेस और राजद इस राजनीति शतरंज में मोहरा बनने को तैयार है। इसीलिए शपथ ग्रहण के साथ ही बिहार की राजनीति में एक रोचक मोड़ दिख रहा है। अब यह तो समय ही बताएगा की यह मोड़ जलेबिया मोड़ साबित होगा या नितिन गडकरी के द्वारा बनाये हुए राजमार्ग का सुगम मोड़।

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