गण+तंत्र - जनता और तंत्र (शासन-प्रशासन) या कहे जनता का तंत्र, जनता के लिए तंत्र चलिए कुछ भी कह लें, समझ लें पर यह बात तो स्पष्ट है कि दोनों एक दूसरे से मजबूती से जुड़े हैं। यदि एक भी कमजोर होता है तो सीधा असर दूसरे पर होगा ही। 26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान लागू किया गया, जिसमें भारत को संसार के समक्ष एक नए गणतंत्र के रूप में प्रस्तुत किया।
एक गणराज्य या गणतंत्र सरकार का एक रूप है जिसमें देश को एक "सार्वजनिक मामला" माना जाता है, न कि शासकों की निजी संस्था या सम्पत्ति। एक गणराज्य के भीतर सत्ता के प्राथमिक पद 'विरासत' में नहीं मिलते हैं और ना ही यह पद 'खानदानी' होती है। यह सरकार का एक रूप है जिसके अंतर्गत राज्य का प्रमुख राजा या फिर कोई 'एक परिवार' नहीं होता। इसलिए इन व्यवस्थाओं को कोई अपनी व्यक्तिगत संपत्ति या खानदानी पेशा ना समझे।
लोक किसी एक जगह के व्यक्तियों की संज्ञा है और गण का अर्थ है उन लोगों का समूह । जिस जगह की उच्चतम व्यवस्था गण द्वारा चुनी जाए जैसे भारत की उच्चतम व्यवस्था राष्ट्रपति भारत के चुने गए विधायकों और सांसदों के गण द्वारा चुनी जाती है, उस जगह को गणतांत्रिक कहते है। हम सब संविधान की कसमें तो खूब खाते हैं, पर क्या सही मायने में हमने कभी संविधान देखा है। संविधान के मूल किताब में पूरी संस्कृति उतार दी गई है। आप माने या ना माने पर इसी संविधान और संस्कृति की हिस्सा 'राम' भी हैं और 'कृष्ण' भी है| हमें गर्व है की सबसे बड़ी लिखित संविधान हमारी है, और देश उन्ही संवैधानिक प्रक्रियाओं से चल रही है। शायद उसी का नतीजा है की वर्तमान की स्थितियों में रामराज जैसा माहौल है। एक नजर भारतीय संविधान की परिकल्पना पर जो कि संविधान के पहले पन्ने पर है और शायद वही मूल आधार है भारतीय संविधान का-
'हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को:
सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता, प्राप्त कराने के लिए, तथा उन सबमें,
व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित कराने वाली, बंधुता बढ़ाने के लिए, दृढ़ संकल्प होकर अपनी संविधानसभा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 ईस्वी को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।'
उपर्युक्त भारतीय संविधान की परिकल्पना पढ़ने और भारतीय समाज की तत्कालीन स्वरुप का विश्लेषण करने के बाद हम पाते हैं कि भारतीय संविधान की परिकल्पना या तो किताबों में या फिर कुछ जुबानों पर रह गयी है। मुझे नहीं लगता कि भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व-संपन्न समाजवादी पंथ निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने कि परिकल्पना पहली बार 26नवम्बर 1949 ई० को कि गयी। वरन यह प्रयास आदि कल से ही किया जा रहा है। वैसे भी समाजवादी और पंथनिरपेक्ष संविधान के शुरुआती दौर के वास्तविक रूप नहीं है इससे संशोधन के माध्यम से 1976 में संविधान का हिस्सा बनाया गया। भारत को ही नहीं अपितु पूरे विश्व को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व-संपन्न समाजवादी पंथ निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने की। तभी तो हमारे ग्रंथों में ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की बात कही गयी है अर्थात पूरे विश्व को एक परिवार बनाने की परिकल्पना जो की तभी संभव है जब पूरे विश्व को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व-संपन्न समाजवादी पंथ निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाया जाय.जो कि आदि कल से लेकर अब तक कागजी और जुबानी रही है। इसका मात्र कारण मानवीय व्यव्हार का केन्द्रीयकरण न हो पाना है।जो कि एक जटिल प्रक्रिया है। जिसे सरल बनाने के लिए आदि काल से लेकर अब तक कई प्रयास किये गए।परिणामस्वरुप कई राष्ट्रों,धर्मों,संस्थाओं के साथ-साथ विचारों का उदभव हुवा और इसके साथ ही मानवीय व्यवहार की केन्द्रीयकरण की समस्या और भी जटिल होती गयी। नतीजतन सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और धार्मिक असमानता पाँव पसारती गई और हम इंसान परिवर्तन के नाम पर अपना स्वार्थ सिद्ध करते आये। संविधान की परिकल्पना हमेशा 'सामाजिक एवं आर्थिक' न्याय की बात करता है, जिसकी बुनियाद रखने में शायद आजादी के पश्चात 70 वर्ष लग गए।
वैसे हम गर्व से कहते हम भारतीय हैं और क्यों ना कहें पर भारतीयता स्वर्ग से उतरा कोई स्वांग नहीं है अपितु भारतीयता संकल्पपूर्वक धारण किया हुआ धर्म है। भारतीयता कह देने से कोई एक जाति अथवा कोई एक वर्ग का अर्थ चरितार्थ नहीं होता है। समष्टि रूप में भारतीयता भारत में वासित समस्त जातियों एवं समस्त वर्गों द्वारा स्वीकार्य ऐसा सर्वोपरि भाव है, जिसमें भारत कि इन दोनों व्यवस्थाओं की पहचान विलीन हो गई है। कहने का तात्पर्य भारतीयता जाति और वर्ग के ऊपर की बात है।
ई०कुणाल भारती युवा उद्यमी |
परंतु प्रस्तावना में अंतर्निहित बातों को पुनः आत्मसात करने का वक्त आ गया है। विशाल गणराज्य जो प्रभुता संपन्न है उसकी एकता और अखंडता को कोई भी अराजकतावादी नष्ट करने का प्रयास कैसे कर सकता है ? हमें मिली संपूर्ण स्वतंत्रता का हनन हम खुद ही कैसे किसी राजघराने, किसी ऐसे विचारधारा जिसे वर्तमान में पूरी दुनिया ने नकार दिया हो या फिर किसी व्यक्ति विशेष वास्तव में सामर्थवान ना हो या कोई दल खुद के बाप दादाओ की भावना से जीवित हो वैसे लोगों के समूह को अपनी आजादी कैसे बेचे ?
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